'पीपली लाइव' फिल्म के एक दृश्य में नत्था के बेटे से एक पत्रकार पूछता है कि स्कूल में मिड-डे-मील मिलता है या नहीं। बच्चा हां में जवाब देता है। यह देख-सुनकर व्यंग्य, विनोद और विस्मय तीनों का अहसास हो गया कि जिस पीपली गांव में भ्रष्ट नौकरशाही और नेताओं के गठजोड़ के चलते राज्य सरकार की लगभग सभी योजनाओं को बुरी गत हुई हो, वहां केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई मिड-डे-मील योजना खूब फल-फूल रही है। ऐसे में लगा कि फिल्म का नाम असल में 'पीपनी लाइव' तो नही है।
'पीपनी' हिंदी पट्टी क्षेत्र के लिए नया शब्द नहीं है। पुंगी बजाने और सपेरों वाली बीन से इतर पीपनी के मायने उस मिट्टी से जुड़े बच्चे आसानी से समझते हैं, जिनके हित में यह फिल्म बनाने का दावा किया गया। शुरू से लेकर आखिर तक फिल्म में निर्माताओं की पीपनी बजती रही। देश में किसान समस्याओं के खिलाफ, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के खस्ताहाल साधनों के खिलाफ, भूख और गरीबी के खिलाफ, भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ और सबसे अहम मीडिया के मानसिक पतन के खिलाफ। लेकिन यह सब दिखाने के लिए जिस गंदगी को परोसा गया, वह उससे भी ज्यादा भौंडापन लिए था, जैसी यह चीजें वास्तव में दिखती हैं। ठीक उसी तरह जिसमें गंदगी को छी-छी कहकर हम उससे किनारा कर लेते हैं, कई जगह इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक अपने उद्देश्य से भटकते नजर आए।
फिल्म के पहले दृश्य से ही जिसमें नत्था की उल्टी पर फोकस किया गया है। साफ दिख जाता है कि फिल्म व्यावसायिक लाभ और विदेशी पुरस्कार हासिल करने के लिए बनाई गई है। अनावश्यक अपशब्दों का प्रयोग फिल्म को 'बी' ग्रेड फिल्मों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है, तो मीडिया को बेवजह निशाने पर लेना तर्कसंगत कम छिछलेदार ज्यादा है। नत्था के मल का विश्लेषण करने के बहाने फिल्मकारों ने जहां एक ओर भारतीय मीडिया की जमकर भद पीटी, वहीं मुख्य प्रदेश के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकारों को कठघरे में खड़ी करने मे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। इस सबके बीच एक तरह से केंद्र सरकार को क्लीन चिट सी दे दी गई है। और तो और फिल्म में राम की जगह शंकर को पदस्थापित करने की नाटकीयता भी पूरे ढंग से रची गई है। हम सभी जानते हैं कि आज भी उत्तर भारत के ज्यादातर गांवों में संबोधन 'जय राम जी' का होता है न कि जय शंकर की। शायद निर्माताओं को लगा कि जय राम जी के संवादों से राम की महिमा का बखान हो गया तो कहीं उनकी फिल्म की रिलीज न टल जाए। ऐसे में हर एक उस सीन पर कैंची चलाई गई जिससे केंद्र सरकार की छवि को नुकसान पहुंच सकता था। थोड़ा बहुत जो कहानी की मांग के अनुसार जरूरी था, वह कृषि मंत्रालय की भेंट चढ़ गया। यहां तक कि बेहद हिट हो चुके फिल्म के गाने 'महंगाई डायन...' का भी महज एक मुखड़ा ही पूरी फिल्म में सुनने को मिलता है। ऐसे में संवेदनशील विषयों को लेकर बनी यह फिल्म करीब दो घंटे में दर्शकों को सिनेमा हाल से बाहर कर देती है।
आज के दौर में जबकि आंचलिक अखबारों का चेहरा भी सकारात्मक खबरों के साथ बदल रहा है। कभी घटना आधारित रहा मीडिया अब 'सोच आधारित' हुआ है। गंदगी या कूड़े-करकट के फोटो अखबार के पन्नों से गायब होते जा रहे हैं। सामाजिक सरोकारों के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले लोगों की जमात नहीं सुधरी है। 'स्लमडाग मिलेनेयर' से 'पीपली लाइव' तक अपना छिद्रान्वेषण कराना एक चलन सा बन गया है। जिसमें 'गू' को छी-छी कहकर उस पर ईंट-पत्थर बरसाए जाते हैं। साफ करने के बजाए उसे छितराया जाता है। भले ही गंदगी के छींटे खुद हमारे दामन पर ही क्यों न आएं। कुल मिलाकर सोशल काॅज के नाम पर बनाई गई 'पीपली लाइव' अन्य मुंबईया फिल्मों की तरह विशुद्ध रूप से बाजार को ध्यान में रखकर तैयार की गई लगती है। फर्क बस इतना सा है कि इसमें बालीवुड फिल्मों की तरह एक आम आदमी और पत्रकार के मिलने पर भ्रष्ट तंत्र का सफाया नही होता बल्कि उसकी जीत होती है।