Friday, May 3, 2013

पब्लिक फोरम आपके घर की दीवार नहीं कि जो चाहे सो लिख दिया..

मीडिया में सीएनएन-आईबीएन की डिप्टी एडीटर सागरिका घोष एक ब्रांड की तरह हैं। जो कुछ भी वह लिखती हैं, उसका ईको साउंड होता है। लोग चर्चा करते है, उस पर बहस होती है और कुछ सार्थक सामने आता है। सोशल मीडिया में उनकी लोकप्रियता का अंदाजा टिवटर पर उनके डेढ़ लाख से ज्यादा फॉलोअर्स से लगाया जा सकता है। लेकिन हाल ही में वह अपनी इसी लेखनी के चलते विवादों में हैं। ऐसा ही कुछ-कुछ दलित लेखन को धार देने वाली लेखिका मीना कंडासामी के साथ हो रहा है। मामले की जड़ में कंडासामी का एक ट्वीट है जो उन्होंने हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी में आयोजित एक बीफ फेस्टीवल से लौटने के बाद किया। टिवटर पर अपने हजारों फॉलोअर्स को संबोधित करते हुए उन्होंने खुद के वहां एंजॉय करने की बात कही।

इंग्लिश में उनकी बात कुछ इस तरह थी - " was at the osmania university beaf-eating festival. Awesome experience in spite of # violence by abvp# Hyderabad".  इसके बाद वही हुआ जिसकी आशंका हर समझदार व्यक्ति को हो सकती है। इन लेखिकाओं की भद उनके ही कुछ फॉलोअर्स ने पीटकर रख दी। कुछेक इस सीमा तक भी पहुंच गए कि उन्होंने पढ़े-लिखे तबके की इन महिलाओं की मय्यो करने से भी गुरेज नही किया।

यह दो मामले काफी हैं यह बताने के लिए कि सोशल मीडिया में आपके लिखने के क्या नतीजे हो सकते हैं। दोनों ही मामलों में कथित सेकुलर लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का नारा बुलंद कर सकते हैं। कह सकते हैं कि लिखने वालों ने अपनी निजी राय जगजाहिर की तो इसमें भड़कने जैसा क्या है।

दरअसल यह न्यू मीडिया का दौर है। खुद की छपास की डेफिशिएंसी का पोषण करने की चुनौती बड़ी हस्तियों के भी सिर चढ़कर बोल रही है। ऐसे में कुछ भी ऊल-जलूल लिखने से पहले हमें दस बार सोचना चाहिए कि हमारे लिखे का सोसायटी पर क्या इम्पैक्ट पड़ेगा। हाल में तेजी से बढ़ा यह 'बद' चलन हम में से कुछ की मेंटेलिटी भी शो करता है कि हम चीजों को किस ढंग से लेते हैं। पब्लिकली हमारी कही या लिखी ऐसी कोई भी बात जिससे दूसरों की फीलिंग हर्ट होती हों, कभी वाजिब नही ठहराई जा सकती।

अभी ज्यादा दिन नही हुए। दिल्ली रेप कांड की घटना के तुरंत बाद फेसबुक पर साहित्य जगत की एक चर्चित महिला सोशल एक्टीविस्ट का स्टेट्स अपडेट सभी को हैरान कर के रख गया। उस अपडेट में उन्होंने उस पीड़िता लड़की की जाति को निशाना बनाते हुए अगड़ा बनाम पिछड़ा की अपनी लड़ाई का आह्वान किया था। बताया गया कि फलां पीड़िता चूंकि सवर्ण है इसलिए लोगों में आक्रोश है। उन भद्र महिला की इस सोच पर गुस्से से ज्यादा तरस आता है। महसूस होता है कि शायद इन्हें नही पता कि यह आखिर क्या कर रही हैं। इसीलिए जब पूरे देश में उस घटना को लेकर गुस्सा था, तब वह शर्मनाक ढंग से उस लड़की की जाति पता कर रही थीं।

नक्सलवाद से जुड़े कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की पोस्ट देखता हूं, तो भी मन में कोफ्त सी होती है। जेहन में अचानक उन जवानों की कतारबद्ध लाशों की तस्वीर घूमने लगती हैं जिन्हें धोखे से उस बुजदिल सिस्टम की भेंट चढ़ा दिया गया। जहां आप सिर्फ इसलिये पहले हथियार नहीं चला सकते की कहीं कोई बेगुनाह न मर जाये। लगता है कि मानवाधिकार के इन कथित पैरोकारों ने जरूर पिछले जन्म में कुछ पुण्य किए होंगे जो भारत जैसे देश में जन्म लिया। कहीं और होते तो अब तक पिछवाड़े पर लात देकर सीधा दोजख का रास्ता दिखा दिया गया होता।

बौद्धिक दिवालियेपन का यह सिलसिला एक-दो लोगों तक सीमित नही है। पढ़े-लिखे लोगों की एक पूरी जमात है जो खुद को प्रगतिशील बताते हुए इस देश के अंदर टुकड़े-टुकड़े में जी रहे हैं। वे रहते जरूर भारत में हैं लेकिन खुद को भारतीय नही मानते। उनका दिल पड़ोसी मुल्कों के लिए धड़कता है। विदेशी मीडिया को मसाला देने के लिए वे सिर्फ विरोध के लिए विरोध की मुंह चाबर करते हैं। यहां तक कि सरबजीत की हत्या पर भी उनके आंसूं नहीं बडबोले बयान बाहर आते हैं। उन्हें हर चीज में कुछ न कुछ सिस्टम विरोधी खंगालना है। 

सोशल मीडिया की ताकत से वह देश और दुनिया में अपनी जैसी ओछी मेंटेलिटी वाले लोगों को बताते हैं कि प्रतिकार इस देश की संस्कृति नही है। तमाम लुटेरों ने अपनी हसरतें यहां पूरी की हैं, और आप भी इसकी अस्मिता लूट सकते हैं। लेकिन वह भूल जाते हैं कि यह न्यू मीडिया का पब्लिक फोरम है, आपके घर की दीवार नही कि जो चाहें सो लिख दें। यहां ईंट का जवाब पत्थर से ही मिलेगा। बचना है तो अपनी भाषा पर संयम रखना ही बेहतर होगा । 

Tuesday, May 3, 2011

ओबामा की दिलेरी और चिदंबरम की चिल्ल पौं!

पिछले दो रोज मेरे पास दो अलग तरह के एसएमएस आए। पहले एसएमएस में शेर के शिकार के तीन नायाब तरीके बताए गए हैं।

इसमें बताया गया है कि पहला न्यूटन वाला तरीका है, जिसमें शेर के पास खुद पहुंच जाओ। वह तुम्हें पकड़े या तुम उसे बात तो एक ही है। दूसरा तरीका आइंसटीन वाला है। इसमें शेर का पीछा जब तक करो जब तक कि वह थक कर एक जगह बैठ न जाए और तब उसे पकड़ लो। तीसरा और सबसे कारगर तरीका जो भारतीय पुलिस इस्तेमाल करती है, वह है किसी बिल्ली को पकड़कर जब तक पीटो जब तक कि वह स्वीकार न कर ले कि वह शेर है।

दूसरे एसएमएस में लिखा था कि अच्छा हुआ ओसामा पाकिस्तान में मारा गया। भारत में होता तो अफजल गुरू या कसाब की तरह करोड़ों के खर्चे पर दावत उड़ा रहा होता।

वैसे तो दोनों एसएमएस अलग-अलग समय और अलग-अलग जगह से आए लेकिन इनमें समानता यह है कि यह सीधे हम भारतीयों के मर्म स्थल पर चोट करते हैं। यह एसएमएस बताते हैं कि हमारे भारत महान में क्या कुछ बन और बिगड़ रहा है। हमारी पुलिस पंगु हो चुकी है और हमारे नेताओं की संवेदना बर्फ हो चुकी है।

पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन की मौत और उसके बाद भारत के गृह मंत्री चिदंबरम का बयान, जिसमें वह पाकिस्तान को आतंकियों की शरणस्थली बताते हुए मुंबई हमलों के आरोपियों को सजा की मांग करते दिखते हैं, हमें एक बार फिर अपनी घुन खाई विदेश नीति और हमारे नेताओं के दब्बूपन का बोध कराता है।

वास्तव में ओसामा बिन लादेन की मौत हम भारतीयों के लिए एक तमाचे का सा काम करती है। ऐसे ही एक तमाचे को खाने के बाद हमारे गृह मंत्री को अहसास होता है कि पाकिस्तान तो बहुत बुरा है। वह हमारे देश में अपराध करने वालों को संरक्षण देता है। अरे भाई! जब दोषियों को सजा दिलाने के लिए वाकई गंभीर हो तो फिर पाकिस्तान के साथ क्रिकेट संबंधों की बहाली की क्या जरूरत थी। एक तरफ क्रिकेट और दूसरी तरफ गाल बजाना, दोनों सिर्फ हमारे देश में ही साथ-साथ चल सकते हैं। अगर नीयत साफ है तो फिर अफजल गुरू को फांसी से बचाकर क्यों किसी कंधार कांड का इंतजार किया जा रहा है।

ओसामा की मौत के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का जोशीला भाषण जिसने भी सुना होगा, उसने यह बूझ लिया होगा कि क्यों अमेरिका महाशक्ति है, और हम अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सुस्ती की आदी हो चुकी हमारी पुलिस या गुप्तचर एजेंसियों में क्यों कोई सरकार जोश भरने में नाकाम रही है। नाकाम और निठल्ले लोगों का विकल्प क्यों नही खोजा जा रहा। हम सिर्फ अपने लोगों की टांग खिंचाई तक ही सीमित क्यों हैं।

हालात को देखते हुए इस कल्पना को सिरे से खारिज नही किया जा सकता कि अगर इसी ओसामा प्रकरण का पटाक्षेप भारत में हुआ होता तो अब तक इस सैन्य कार्रवाई के न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गए होते। कार्रवाई में शामिल होने वाले सैनिकों पर मानवाधिकार हनन का मुकदमा लाद दिया गया होता। विपक्ष सरकार पर राजनीति से प्रेरित कार्रवाई का आरेाप लगाता और सरकार विपक्ष को घेरने के लिए कोई नया प्वांइट लेकर आती। लेकिन अपनी अस्मिता से जुड़े सवाल पर सवा अरब भारतीयों के दर्द को दूर करने का उपाय किसी के पास नही होता।

शायद नेता भी अब समझ गए हैं कि भारतीय जनता की याद्दाश्त अमरीकियों की तरह नही होती जो अपने नेता का चुनाव उसके कार्य और योग्यता के आधार पर करें। भारतीयों की आंखों पर चढ़े जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के अलग-अलग चश्मे कुछ और देखने ही नही देते, सिवाय उसके जो नेता हमें दिखाना और जताना चाहते हैं। ओसामा की मौत के बाद पाकिस्तान के खिलाफ चिदंबरम की चिल्ल पौं कुछ ऐसा ही साबित करती है।

Tuesday, April 19, 2011

सही मुद्दे पर गलत लड़ाई लड़ रहे हैं अन्ना!

अन्ना हजारे इन दिनों नेशनल हीरो हैं। लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था में टांग अड़ाने के बाद उनकी तुलना गांधी से की जाने लगी है। वहीं कुछ अखबारों ने तो अपने संपादकीय के जरिए अन्ना को जेपी और अंबेडकर के समकक्ष ला खड़ा किया है। इस सबके बीच अन्ना ने कहा भी है कि अपनी मांगों को मनवाने का उनका यह तरीका अगर ब्लैकमेलिंग है, तो वह आगे भी इसे जारी रखना चाहेंगे और देश से 90 फीसदी भ्रष्टाचार समाप्त कर देंगे। कुल मिलाकर बात भ्रष्टाचार से शुरू हुई और भ्रष्टाचार पर खत्म भी होगी, लेकिन यह सवाल अब भी अनुत्तरित ही है कि क्या भ्रष्टाचार हमारे देश से खत्म हो पाएगा?

जानकार बताते हैं कि भ्रष्टाचार खत्म हो ही नही सकता। वास्तव में यह सिर्फ घट या बढ़ सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ें भी बहुत पुरानी हैं। ऋग्वेद में भी इसके साक्ष्य मिलते हैं। यहां तक कि राजा हरिशचंद्र भी इस भ्रष्ट व्यवस्था की ही भेंट चढ़े। हाल ही में सामने आई घोटालों की एक भरी-पूरी श्रृंखला के बाद भ्रष्टाचार विरोधी किसी भी मुहिम को गलत नही कहा जा सकता। भले ही दिल्ली के जंतर मंतर पर मिस्र  के तहरीर चौक जैसा नजारा न दिखा हो लेकिन अन्ना के अनशन की वजह हर गली-नुक्कड़ पर बहस का मुद्दा बन गई। हर आम और खास ने लोकपाल बिल के बारे में सोचा-समझा। प्रतिक्रिया में कई शहरों में लोग अपने-अपने ढंग से सड़क पर उतरे। यह बात अलग है कि उस भीड़ में कुछ चोर भी अपना चेहरा चमकाने से बाज नही आए, लेकिन ज्यादातर वह लोग थे जो इस देश में भ्रष्टाचार रूपी दानव को दम तोड़ते देखना चाहते थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का जो आगाज पूंजीपति बाबा रामदेव के बीसियों भाषण नही कर पाए, वह आम लोगों के बीच से उठे अन्ना हजारे के एक सत्याग्रह ने कर दिया।

भारी जन समर्थन के बीच अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का निश्चित रूप से स्वागत किया जाना चाहिए, और ऐसा हुआ भी कि लोगों ने अन्ना और उनके सहयोगियों को हाथोंहाथ लिया। इस दौरान कहीं-कहीं विरोध की सुगबुगाहट भी हुई। मंच पर भारत माता के चित्र और मोदी की तारीफ के बीच अन्ना के सेकुलर होने पर भी सवाल उठे। बावजूद इसके आंदोलन अपनी गति से चलता रहा और मांगें माने जाने के बाद ही समाप्त हुआ। इस कथित जीत के साथ ही भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ एक नजीर भी बन गई। लोगों के मन में उम्मीदों से ज्यादा आशंकाओं ने जन्म लिया। सोचा, अगर आम लोग कानून बनाएंगे तो संसद क्या करेगी। भारतीय संविधान में यह निर्दिष्ट है कि विधायिका का कार्य कानून का निर्माण है और कार्यपालिका का कार्य उन कानूनों के क्रियान्वयन का, लेकिन जब लोग कानून बनाएंगे तो विधायिका की भूमिका कितनी और क्या भर रह जाएगी। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना की इस लड़ाई का यह मुद्दा सही हो सकता है लेकिन तरीका कतई नही। यह कुछ-कुछ जनरल का टिकट लेकर ट्रेन के एसी डिब्बों में घुसने जैसा है। इस सबसे अब संभव है कि भविष्य में नक्सलियों के खिलाफ किसी कानून का मसौदा अरूंधती राय, डॉ बिनायक सेन और स्वामी अग्निवेश जैसे नक्सलियों के कथित हितैषी बनाएं। अपनी मांगों को मनवाने के लिए अफजल गुरू जैसे लोग धरने पर बैठें। बेहतर होता यदि टीम अन्ना समिति में शामिल हुए बगैर विधेयक के संबंध में अपने सुझाव देती और संसद उन पर बहस के बाद विधेयक पारित करती। इससे सांविधिक संस्था में असांविधिक लोगों का अनाधिकृत प्रवेश भी नही होता और न ही भविष्य के लिए गले में हड्डी जैसी कोई नजीर ही बनती। साथ ही अन्ना उस तरह के आरोपों से भी नही घिरते जिनका सामना उन्हें करना पड़ रहा है। बेशक मेधा के लिहाज से समिति में पिता-पुत्र को शामिल किया जाना गलत नही कहा जा सकता, लेकिन क्या यह उचित नही होता कि उस समिति में कोई पिता या पुत्र अपनी जगह किसी और का नाम प्रस्तावित करता। वैसे भी पिता अपने सुझावों से अपने पुत्र को अवगत करा सकता था और पुत्र अपनी सोच पिता को बता सकता था लेकिन दुर्भायवश ऐसा हो न सका। मंच पर जो आंदोलन हाईजैक न हुआ, वह अन्यत्र दुर्भावना की भेंट चढ़ गया।

अब जबकि अन्ना के रुख में गजब का परिवर्तन आया है। अड़ियल रवैया छोड़कर वह नरमपंथी होने की ओर हैं। ऐसे में हम यह प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर उन्हें यह समझ दे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए यह भी जरूरी है कि काली कमाई का सामाजिक जीवन में प्रवेश न होने दें। भले ही यह उनके लिए लाखों रूपए के चंदे की रकम के रूप में क्यों न हो। यही कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए सेलिना जेटली या प्रियंका चोपड़ा से समर्थन हासिल करने से कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प चुनाव प्रक्रिया में सुधार का हो सकता है। विधि का निर्माण विधायिका का ही काम है, उसे करने दें। ज्यादा इच्छा हो तो लोगों को सीधे चुनाव में उतरकर हराएं, संवैधानिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर के नहीं।

Saturday, December 11, 2010

क्लाइमेट चेंज के बीच सूखता आंखों का पानी !

   क्लाइमेट चेंज को ग्लोबल वार्मिंग कहना है या फिर ग्लोबल कूलिंग, वैज्ञानिक भले ही यह तय न कर पाए हों लेकिन लोगों की आंखों का पानी सूख रहा है, इस तथ्य पर सहमत हुए बिना नही रहा जा सकता। हाल की कुछ घटनाएं इस समस्या के वैश्विक स्वरूप को तर्कपूर्ण ढंग से सामने लाती हैं। जैसे कि, गोदामों में सड़ रहे खाद्यान्न को मुफ्त बांटने की बात पर जब केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप न करने की सीख दी गई तो भले ही केंद्र सरकार के नुमाइंदों को अहसास न हुआ हो, लेकिन भूख और गरीबी से त्रस्त जनता को पता चल गया कि आंखों का पानी सूख रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा जब खुद की तुलना हाईस्कूल के छात्र से की गई, तब सबके साथ खुद सत्तासीनों को भी इस बात का अहसास हो गया कि यह समस्या वास्तव में राष्ट्रीय स्तर की है, और खुद प्रधानमंत्री भी इस से अछूते नहीं हैं।

   अरूंधती राय ने जब भारत में बैठकर पाकिस्तान के सुर में कश्मीर की आजादी का सुर मिलाया तब शहीदों के परिजनों के साथ हर एक हिंदुस्तानी को महसूस हुआ कि वास्तव में आंखों के पानी के सूखने की यह समस्या देश में नदियों के सूखने से कहीं ज्यादा बड़ी है। इसी तरह आजादी बचाओ आंदोलन के प्रखर प्रवक्ता और स्वदेशी विचार से ओत-प्रोत राजीव दीक्षित के निधन के बाद भी जब राजनीति में जाने को अधीर बाबा रामदेव की भारत स्वाभिमान यात्रा स्थगित नही हुई, तब समझने वाले समझ गए कि यह समस्या महज राजनीतिज्ञों तक सीमित नही है, बल्कि योगी-जोगी भी इसके शिकार हो रहे हैं।

   ऐसा उस समय भी लगा, जब क्रिकेटर और सांसद अजहरूद्दीन की बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला के साथ अफेयर की खबरें संगीता बिजलानी के गमगीन चेहरे के साथ अखबारों की सुर्खियां बनीं। अजहर की पहली पत्नी नौरीन को याद करते हुए लोगों ने इसी समस्या की गंध महसूस की। इससे पहले खुद से तकरीबन आठ साल बड़ी पत्नी अमृता सिंह को गुड बाय बोल करीना से नाता जोड़ने वाले अभिनेता सैफ अली खान को लेकर भी लोगों के मन में ऐसे विचार पनपे थे।

   ऐसा नही कि जलवायु परिवर्तन का यह असर सिर्फ भारत में दिख रहा है। सुरक्षा परिषद में भारत के दावे की खिल्ली उड़ाने के विकीलीक्स खुलासे पर भी हर भारतीय को पता चल गया  कि आंखों का पानी सूखने की यह समस्या वास्तव में ग्लोबल है और दुनिया का सबसे ताकतवर देश भी इसकी जद में है। पाकिस्तान द्वारा बाढ़ पीड़ितों के लिए भारत की मदद ठुकराए जाने पर भी लोगों ने ऐसा ही कुछ महसूस किया।

   बहरहाल, घटनाएं कई हैं। गली-मुहल्ले से लेकर देश और दुनिया तक की, जो हमारे बीच संवेदनहीन लोगों की नंगी तस्वीर सामने रख देती हैं। एक जमाने में लोग ऐसी आंखों को जिनका पानी सूख जाता था, हेय दृष्टि से देखते थे और उस पर रिएक्ट करते थे लेकिन आज मनुष्य की फायदेवादी बुद्धि इस सबका न तो मौका देती है और ना ही समय। ऐसे में क्लाइमेट चेंज के बहाने हम इस सब पर भी गौर फरमा लें तो क्या बुरा है!

Friday, October 29, 2010

ईमानदारी के जोखिम !

   भ्रष्टाचार के खिलाफ हम बचपन से पढ़ते-सुनते आए हैं। जैसे- भ्रष्टाचार का खात्मा होना चाहिए। भ्रष्टाचार हमारे देश की तरक्की में बाधक है। भ्रष्टाचार हमारे देश को दीमक की तरह चाट रहा है। भ्रष्टाचारियों की जगह जेल में होनी चाहिए। वगैरह-वगैरह। लेकिन असल जिंदगी जिसे प्रैक्टिकल लाइफ कहा जाता है, में इससे उलट ही होते देखा है। अखबारों में आजकल हम इस समस्या   निवारण के लिए बाकायदा सतर्कता जागरूकता सप्ताह मनाने की खबरें देखतें हैं, वहीँ दूसरी ओर एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारा देश शर्मनाक ढंग से ग्लोबल ऑनेस्टी इंडेक्स में 87 से 84वें स्थान पर आ गया है । ऐसे में इस बारे में दूसरे ढंग से सोचा तो कई नयी जानकारी मिलीं। 
जैसे - ईमानदारी अपने साथ कई सारे जोखिम भी लेकर आती है। मसलन - 1. ईमानदार व्यक्ति सोसायटी जिसे सभ्य समाज भी कहा जाता है, से अलग-थलग हो सकता है। 2. हाथ-पैर टूटने से लेकर जान जाने तक की क्षति हो सकती है। 3. ताउम्र की दरिद्रता के लिए परिजनों के ताने सुनने पड़ सकते हैं। 4.अगर बेटी है तो उसकी शादी अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो सकती है और बेटा हुआ तो उसके उच्च शिक्षा के नाम पर बीए-एमए ही कर पाने की संभावना ज्यादा हैं बजाए डाक्टरी या इंजीनियरिंग के। तो कुल मिलाकर ईमानदार टाइप के व्यक्ति का जीवन जोखिमों से भरा हुआ है। कदम-कदम पर उसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है। दो टूक कहा जाए तो जो जितना ज्यादा ईमानदार उसको उतने ही ज्यादा जोखिम। पहले गलत काम के लिए रिश्वत का चलन लेकिन अब सही काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। यहां तक कि सहूलियत के लिए रिश्वत का नाम बदलकर भी सुविधा शुल्क कर दिया गया। बड़े-बूढ़े बताते हैं कि एक जमाना था जब सरकारी कार्यालयों में रिश्वत लेने वाले कर्मचारी को लोग हिकारत भरी नजरों से देखते थे और अब यह जमाना है कि रिश्वत न लेने वाले कर्मचारी को लोग हिकारत की नजरों से देखते हैं। ऐसा हो भी क्यों न, हर ओर रिश्वत का बोलबाला जो है।

   इस सबके बीच एक और महत्वपूर्ण तथ्य है जिसका जिक्र करना जरूरी है, वह है जोखिमों के बावजूद ईमानदारी का साथ न छोड़ने वाले लोगों के प्रति हमारे अंदर का नजरिया। वह नजरिया जिसमें हम जुबान से तो भले ही उन्हें बेवकूफ बता दें और अपने ईमानदारी के जोखिमों का न्यौता खुद को देने के लिए उनको जिम्मेदार ठहराएं लेकिन मन ही मन हम उस व्यक्ति की जीवटता की सराहना भी करते हैं। ऐसे ही ईमानदारी का एक जोखिम बिहार की सड़कों का सूरत-ए-हाल बदलने के लिए सत्येंद्र दुबे ने उठाया। नतीजा उनकी शहादत के रूप में दुनिया के सामने है। ऐसे ही एक और व्यक्ति को मैं जानता हूं जिन्होंने प्रतिनियुक्ति पर एक सरकारी संस्था में जाकर भ्रष्टाचारियों की ऐसी तलीझाड़ सफाई की कि खुद उनका महकमा भी हिल गया। चार राज्यों में चार सौ से ज्यादा ऐसे कालेजों की मान्यता खत्म कर दी जहां कागजों में तो डिग्री कॉलेज चल रहे थे लेकिन धरातल पर हो रही थी सिर्फ गेहूं और ज्वार की फसल। नतीजन वही हुआ जो हर ईमानदार के साथ होता है। पहले शिक्षा माफिया मान-मनौव्वल में जुटे। न माने तो फिर रास्ता घेरा गया, हाथ-पैर तुड़वाने से लेकर हत्या तक की धमकी भी दी गईं। कोर्ट के आदेश पर सुरक्षा मिली तो फिर दूसरे हथकंडे अपनाए गए। जो व्यक्ति रिश्वत की चाय तक पीना गवारा न करता हो उसके खिलाफ फर्जी शिकायतों का ढेर लग गया। यहां तक कि कर्जा होने के बावजूद उन्हें आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने का भी आरोपी बना दिया गया। यह बात अलग है कि जांच में साबित एक भी न हुआ लेकिन अपनी इस ईमानदार करनी का फल वह आज भी भुगत रहे हैं।

   एक-दो को तो मैं जानता हूं लेकिन न जाने ऑनेस्टी के ऐसे कितने आइकन होंगे जिन्होंने ईमान की सलामती के लिए बड़ी कीमत चुकाई। भले ही इससे भ्रष्ट तंत्र और उसके झंडाबरदारों के कानों पर जूं न रेंगी हो लेकिन नई जमात को आत्म चिंतन का रास्ता दिखा दिया। जता दिया कि ईमानदारी का रास्ता मुश्किल जरूर हो लेकिन आत्मा के चैन और सुकून तक ले जाता है, जबकि बेईमानी शुरूआत में कितनी भी विलासिता क्यों न लेकर आए, अंत उसका कष्ट भोगने से ही   होता है।

    मौजूदा दौर में सत्येंद्र जैसे लोग ईमानदारी का दूसरा नाम हैं। ऐसे लोग जिन्होंने दरिद्रता या फिर जान के खतरे जैसे किसी दबाव में भ्रष्ट तंत्र के आगे समर्पण नही किया बल्कि सच्चे ईमान के साथ उसके सफाए को ही निकल पड़े। मुट्ठी भर लेकिन असली जिगर वाले इन लोगों ने समाज के सामने उदाहरण पेश किया और हमेशा के लिए अमर हो गए। आप भी सोचेंगे कि ऐसी अमरता किस काम की जिसमें आगा-पीछा न देखा जाए। बीवी-बच्चों को बेसहारा छोड़ जाएं। दरअसल सच्चाई की मिसाल बनने वाले लोगों की यही खूबी रही कि इन्होंने अपनी जिंदगी में ईमानदारी का अभिनय नही किया, बल्कि ईमानदारी को जिया। उन लोगों की तरह जिन्हें जब तक मौका न मिले भ्रष्टाचार के खिलाफ गाल बजाते रहें और जब मौका मिले तो चुपचाप भ्रष्ट हो जाएं। ऐसे भी यह लोग न थे। यहां तक कि अपनी लड़की की शादी या कमजोर आर्थिक स्थिति का बहाना लेकर भी जैसी कि स्वीकार्यता है, इन्होंने अपने नीतिगत सिद्धांतों को दरकिनार न किया।

   सच पूछा जाए तो भ्रष्टाचार के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है नई पीढ़ी के आत्मबल का कमजोर होना तथा उस धार्मिक भावना का ह्ास होना जिसमें हम यह मानते हैं कि कोई ईश्वरीय शक्ति हमें संचालित कर रही है और अगर गलत काम करेंगे तो वह हमें इसका दण्ड देगी। अब इसी धर्मसत्ता पर उस राजसत्ता की पकड़ मजबूत हुई है,  जिसमें समझा जाता है कि कानून की आंखों में धूल झोंकना सरल है। बचपन में ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन से शुरू यह आदत बाद में टैक्स चोरी और फिर भ्रष्टाचार में बदल जाती है। रिश्वत देकर नौकरी देने वाला सबसे पहले अपनी उस लागत को रिश्वत के रूप में ही लोगों से वसूलता है जो उसने नौकरी के लिए दी थी। उसके बाद इसका चस्का उसे कुछ और नीतिगत सोचने-समझने का वक्त ही नही देता। हमारे बुजुर्ग एक बात और काम की कहते हैं जो शायद हर रिश्वतखोर और भ्रष्ट व्यक्ति को याद रखनी चाहिए कि ‘चोरी का माल मोरी यानी नाली में ही जाता है।’ मतलब, बुरे काम का नतीजा भी बुरा ही होता है। हो सकता है कि काला धन ज्यादा दिन आपके पास नही टिक सकता। आपके पास सिर्फ वही रह जाएगा जो आपने ईमानदारी से कमाया है और जो आपको देय है।

Monday, October 25, 2010

दक्षिण भारत में खुलते दिल के दरवाजे

देश में भाषा को लेकर मतभिन्नता नई नही है। चाहे वह नेहरू और पटेल का युग हो या मनमोहन सिंह का। हिंदी को लेकर बहस जारी है। लेकिन बीते दिनों हैदराबाद में हिंदी का जलवा देखकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों में अपनी राजभाषा के साथ सौतेले बर्ताव के किस्से हवा हो गए। देख-सुनकर अच्छा लगा कि दक्षिण भारत में आहिस्ता-आहिस्ता ही सही लेकिन हिंदी के लिए दिल के दरवाजे खुल रहे  हैं।

यूं तो आंध्रप्रदेश में तेलुगु का सिक्का चलता है, लेकिन हिंदी बोलने वालों की भी वहां कमी नही है। इसमें मूल रूप से आंध्र के रहने वाले भी हैं और हिंदी भाषी प्रदेशों से रोजगार की तलाश में आकर बसे लोग भी। कम्पोजिट कल्चर के इस शहर में हिंदी बोलने वालों को हिकारत की नजर से नही देखा जाता। अपनों से अपनों की बातचीत का जरिया जहां तेलुगु है, वहीं कामकाज में हिंदी का चलन बना हुआ है। बिल्कुल हिंदी पट्टी की तरह जहां भले ही गांव-परिवार में बृज, अवधी या अन्य कोई बोली अभिव्यक्ति का माध्यम हो लेकिन कामकाज के लिए खड़ी बोली ही प्रयुक्त की जाती है। कुल मिलाकर हैदराबाद में यही महसूस होता है कि इस मेगा सिटी के साथ आंध्र प्रदेश केवल टेक्नोलॉजी में ही आगे नही बढ़ रहा बल्कि उसके अपने लोगों की सोच का दायरा भी बढ़ रहा है।

इससे पहले मेरे पास अपने उन मित्रों के सुनाए संस्मरण थे जो या तो दक्षिण भारत में रह रहे हैं या फिर जिन्होंने कभी वहां की यात्रा की है। उनके अनुसार दक्षिण भारत में हिंदी के प्रति रवैया बिल्कुल वैसा है जो एक ब्याहता का अपनी सौतन के साथ होता है। मतलब, हिंदी भाषी लोग वहां फूटी आंख किसी को नही सुहाते। यहां तक कि जिन लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाएं नही आतीं, उन्हें अंग्रेजी बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है न कि हिंदी। बहरहाल हिंदी पर अंग्रेजी को दी जाने वाली वरीयता समझ से परे ही है। वहीं हैदराबाद में हिंदी के प्रति बदला नजरिया भविष्य की हिंदी और उसकी बहस के पटाक्षेप का शुभ संकेत ही है। हैदराबाद से जहां गैर हिंदी प्रदेशों में भाषायी सीमा टूटने का अथ हुआ है, वहीँ इति भी कहीं न कहीं से जरूर होगी।

Tuesday, August 24, 2010

पीपली लाइव: गू नहीं यह छी-छी है..!

'पीपली लाइव' फिल्म के एक दृश्य में नत्था के बेटे से एक पत्रकार पूछता है कि स्कूल में मिड-डे-मील मिलता है या नहीं। बच्चा हां में जवाब देता है। यह देख-सुनकर व्यंग्य, विनोद और विस्मय तीनों का अहसास हो गया कि जिस पीपली गांव में भ्रष्ट नौकरशाही और नेताओं के गठजोड़ के चलते राज्य सरकार की लगभग सभी योजनाओं को बुरी गत हुई हो, वहां केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई मिड-डे-मील योजना खूब फल-फूल रही है। ऐसे में लगा कि फिल्म का नाम असल में 'पीपनी लाइव' तो नही है।

'पीपनी' हिंदी पट्टी क्षेत्र के लिए नया शब्द नहीं है। पुंगी बजाने और सपेरों वाली बीन से इतर पीपनी के मायने उस मिट्टी से जुड़े बच्चे आसानी से समझते हैं, जिनके हित में यह फिल्म बनाने का दावा किया गया। शुरू से लेकर आखिर तक फिल्म में निर्माताओं की पीपनी बजती रही। देश में किसान समस्याओं के खिलाफ, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के खस्ताहाल साधनों के खिलाफ, भूख और गरीबी के खिलाफ, भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ और सबसे अहम मीडिया के मानसिक पतन के खिलाफ। लेकिन यह सब दिखाने के लिए जिस गंदगी को परोसा गया, वह उससे भी ज्यादा भौंडापन लिए था, जैसी यह चीजें वास्तव में दिखती हैं। ठीक उसी तरह जिसमें गंदगी को छी-छी कहकर हम उससे किनारा कर लेते हैं, कई जगह इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक अपने उद्देश्य से भटकते नजर आए।

फिल्म के पहले दृश्य से ही जिसमें नत्था की उल्टी पर फोकस किया गया है। साफ दिख जाता है कि फिल्म व्यावसायिक लाभ और विदेशी पुरस्कार हासिल करने के लिए बनाई गई है। अनावश्यक अपशब्दों का प्रयोग फिल्म को 'बी' ग्रेड फिल्मों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है, तो मीडिया को बेवजह निशाने पर लेना तर्कसंगत कम छिछलेदार ज्यादा है। नत्था के मल का विश्लेषण करने के बहाने फिल्मकारों ने जहां एक ओर भारतीय मीडिया की जमकर भद पीटी, वहीं मुख्य प्रदेश के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकारों को कठघरे में खड़ी करने मे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। इस सबके बीच एक तरह से केंद्र सरकार को क्लीन चिट सी दे दी गई है। और तो और फिल्म में राम की जगह शंकर को पदस्थापित करने की नाटकीयता भी पूरे ढंग से रची गई है। हम सभी जानते हैं कि आज भी उत्तर भारत के ज्यादातर गांवों में संबोधन 'जय राम जी' का होता है न कि जय शंकर की। शायद निर्माताओं को लगा कि जय राम जी के संवादों से राम की महिमा का बखान हो गया तो कहीं उनकी फिल्म की रिलीज न टल जाए। ऐसे में हर एक उस सीन पर कैंची चलाई गई जिससे केंद्र सरकार की छवि को नुकसान पहुंच सकता था। थोड़ा बहुत जो कहानी की मांग के अनुसार जरूरी था, वह कृषि मंत्रालय की भेंट चढ़ गया। यहां तक कि बेहद हिट हो चुके फिल्म के गाने 'महंगाई डायन...' का भी महज एक मुखड़ा ही पूरी फिल्म में सुनने को मिलता है। ऐसे में संवेदनशील विषयों को लेकर बनी यह फिल्म करीब दो घंटे में दर्शकों को सिनेमा हाल से बाहर कर देती है।

आज के दौर में जबकि आंचलिक अखबारों का चेहरा भी सकारात्मक खबरों के साथ बदल रहा है। कभी घटना आधारित रहा मीडिया अब 'सोच आधारित' हुआ है। गंदगी या कूड़े-करकट के फोटो अखबार के पन्नों से गायब होते जा रहे हैं। सामाजिक सरोकारों के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले लोगों की जमात नहीं सुधरी है। 'स्लमडाग मिलेनेयर' से 'पीपली लाइव' तक अपना छिद्रान्वेषण कराना एक चलन सा बन गया है। जिसमें 'गू' को छी-छी कहकर उस पर ईंट-पत्थर बरसाए जाते हैं। साफ करने के बजाए उसे छितराया जाता है। भले ही गंदगी के छींटे खुद हमारे दामन पर ही क्यों न आएं। कुल मिलाकर सोशल काॅज के नाम पर बनाई गई 'पीपली लाइव' अन्य मुंबईया फिल्मों की तरह विशुद्ध रूप से बाजार को ध्यान में रखकर तैयार की गई लगती है। फर्क बस इतना सा है कि इसमें बालीवुड फिल्मों की तरह एक आम आदमी और पत्रकार के मिलने पर भ्रष्ट तंत्र का सफाया नही होता बल्कि उसकी जीत होती है।