पिछले दो रोज मेरे पास दो अलग तरह के एसएमएस आए। पहले एसएमएस में शेर के शिकार के तीन नायाब तरीके बताए गए हैं।
इसमें बताया गया है कि पहला न्यूटन वाला तरीका है, जिसमें शेर के पास खुद पहुंच जाओ। वह तुम्हें पकड़े या तुम उसे बात तो एक ही है। दूसरा तरीका आइंसटीन वाला है। इसमें शेर का पीछा जब तक करो जब तक कि वह थक कर एक जगह बैठ न जाए और तब उसे पकड़ लो। तीसरा और सबसे कारगर तरीका जो भारतीय पुलिस इस्तेमाल करती है, वह है किसी बिल्ली को पकड़कर जब तक पीटो जब तक कि वह स्वीकार न कर ले कि वह शेर है।
दूसरे एसएमएस में लिखा था कि अच्छा हुआ ओसामा पाकिस्तान में मारा गया। भारत में होता तो अफजल गुरू या कसाब की तरह करोड़ों के खर्चे पर दावत उड़ा रहा होता।
वैसे तो दोनों एसएमएस अलग-अलग समय और अलग-अलग जगह से आए लेकिन इनमें समानता यह है कि यह सीधे हम भारतीयों के मर्म स्थल पर चोट करते हैं। यह एसएमएस बताते हैं कि हमारे भारत महान में क्या कुछ बन और बिगड़ रहा है। हमारी पुलिस पंगु हो चुकी है और हमारे नेताओं की संवेदना बर्फ हो चुकी है।
पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन की मौत और उसके बाद भारत के गृह मंत्री चिदंबरम का बयान, जिसमें वह पाकिस्तान को आतंकियों की शरणस्थली बताते हुए मुंबई हमलों के आरोपियों को सजा की मांग करते दिखते हैं, हमें एक बार फिर अपनी घुन खाई विदेश नीति और हमारे नेताओं के दब्बूपन का बोध कराता है।
वास्तव में ओसामा बिन लादेन की मौत हम भारतीयों के लिए एक तमाचे का सा काम करती है। ऐसे ही एक तमाचे को खाने के बाद हमारे गृह मंत्री को अहसास होता है कि पाकिस्तान तो बहुत बुरा है। वह हमारे देश में अपराध करने वालों को संरक्षण देता है। अरे भाई! जब दोषियों को सजा दिलाने के लिए वाकई गंभीर हो तो फिर पाकिस्तान के साथ क्रिकेट संबंधों की बहाली की क्या जरूरत थी। एक तरफ क्रिकेट और दूसरी तरफ गाल बजाना, दोनों सिर्फ हमारे देश में ही साथ-साथ चल सकते हैं। अगर नीयत साफ है तो फिर अफजल गुरू को फांसी से बचाकर क्यों किसी कंधार कांड का इंतजार किया जा रहा है।
ओसामा की मौत के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का जोशीला भाषण जिसने भी सुना होगा, उसने यह बूझ लिया होगा कि क्यों अमेरिका महाशक्ति है, और हम अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सुस्ती की आदी हो चुकी हमारी पुलिस या गुप्तचर एजेंसियों में क्यों कोई सरकार जोश भरने में नाकाम रही है। नाकाम और निठल्ले लोगों का विकल्प क्यों नही खोजा जा रहा। हम सिर्फ अपने लोगों की टांग खिंचाई तक ही सीमित क्यों हैं।
हालात को देखते हुए इस कल्पना को सिरे से खारिज नही किया जा सकता कि अगर इसी ओसामा प्रकरण का पटाक्षेप भारत में हुआ होता तो अब तक इस सैन्य कार्रवाई के न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गए होते। कार्रवाई में शामिल होने वाले सैनिकों पर मानवाधिकार हनन का मुकदमा लाद दिया गया होता। विपक्ष सरकार पर राजनीति से प्रेरित कार्रवाई का आरेाप लगाता और सरकार विपक्ष को घेरने के लिए कोई नया प्वांइट लेकर आती। लेकिन अपनी अस्मिता से जुड़े सवाल पर सवा अरब भारतीयों के दर्द को दूर करने का उपाय किसी के पास नही होता।
शायद नेता भी अब समझ गए हैं कि भारतीय जनता की याद्दाश्त अमरीकियों की तरह नही होती जो अपने नेता का चुनाव उसके कार्य और योग्यता के आधार पर करें। भारतीयों की आंखों पर चढ़े जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के अलग-अलग चश्मे कुछ और देखने ही नही देते, सिवाय उसके जो नेता हमें दिखाना और जताना चाहते हैं। ओसामा की मौत के बाद पाकिस्तान के खिलाफ चिदंबरम की चिल्ल पौं कुछ ऐसा ही साबित करती है।