अन्ना हजारे इन दिनों नेशनल हीरो हैं। लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था में टांग अड़ाने के बाद उनकी तुलना गांधी से की जाने लगी है। वहीं कुछ अखबारों ने तो अपने संपादकीय के जरिए अन्ना को जेपी और अंबेडकर के समकक्ष ला खड़ा किया है। इस सबके बीच अन्ना ने कहा भी है कि अपनी मांगों को मनवाने का उनका यह तरीका अगर ब्लैकमेलिंग है, तो वह आगे भी इसे जारी रखना चाहेंगे और देश से 90 फीसदी भ्रष्टाचार समाप्त कर देंगे। कुल मिलाकर बात भ्रष्टाचार से शुरू हुई और भ्रष्टाचार पर खत्म भी होगी, लेकिन यह सवाल अब भी अनुत्तरित ही है कि क्या भ्रष्टाचार हमारे देश से खत्म हो पाएगा?
जानकार बताते हैं कि भ्रष्टाचार खत्म हो ही नही सकता। वास्तव में यह सिर्फ घट या बढ़ सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ें भी बहुत पुरानी हैं। ऋग्वेद में भी इसके साक्ष्य मिलते हैं। यहां तक कि राजा हरिशचंद्र भी इस भ्रष्ट व्यवस्था की ही भेंट चढ़े। हाल ही में सामने आई घोटालों की एक भरी-पूरी श्रृंखला के बाद भ्रष्टाचार विरोधी किसी भी मुहिम को गलत नही कहा जा सकता। भले ही दिल्ली के जंतर मंतर पर मिस्र के तहरीर चौक जैसा नजारा न दिखा हो लेकिन अन्ना के अनशन की वजह हर गली-नुक्कड़ पर बहस का मुद्दा बन गई। हर आम और खास ने लोकपाल बिल के बारे में सोचा-समझा। प्रतिक्रिया में कई शहरों में लोग अपने-अपने ढंग से सड़क पर उतरे। यह बात अलग है कि उस भीड़ में कुछ चोर भी अपना चेहरा चमकाने से बाज नही आए, लेकिन ज्यादातर वह लोग थे जो इस देश में भ्रष्टाचार रूपी दानव को दम तोड़ते देखना चाहते थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का जो आगाज पूंजीपति बाबा रामदेव के बीसियों भाषण नही कर पाए, वह आम लोगों के बीच से उठे अन्ना हजारे के एक सत्याग्रह ने कर दिया।
भारी जन समर्थन के बीच अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का निश्चित रूप से स्वागत किया जाना चाहिए, और ऐसा हुआ भी कि लोगों ने अन्ना और उनके सहयोगियों को हाथोंहाथ लिया। इस दौरान कहीं-कहीं विरोध की सुगबुगाहट भी हुई। मंच पर भारत माता के चित्र और मोदी की तारीफ के बीच अन्ना के सेकुलर होने पर भी सवाल उठे। बावजूद इसके आंदोलन अपनी गति से चलता रहा और मांगें माने जाने के बाद ही समाप्त हुआ। इस कथित जीत के साथ ही भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ एक नजीर भी बन गई। लोगों के मन में उम्मीदों से ज्यादा आशंकाओं ने जन्म लिया। सोचा, अगर आम लोग कानून बनाएंगे तो संसद क्या करेगी। भारतीय संविधान में यह निर्दिष्ट है कि विधायिका का कार्य कानून का निर्माण है और कार्यपालिका का कार्य उन कानूनों के क्रियान्वयन का, लेकिन जब लोग कानून बनाएंगे तो विधायिका की भूमिका कितनी और क्या भर रह जाएगी। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना की इस लड़ाई का यह मुद्दा सही हो सकता है लेकिन तरीका कतई नही। यह कुछ-कुछ जनरल का टिकट लेकर ट्रेन के एसी डिब्बों में घुसने जैसा है। इस सबसे अब संभव है कि भविष्य में नक्सलियों के खिलाफ किसी कानून का मसौदा अरूंधती राय, डॉ बिनायक सेन और स्वामी अग्निवेश जैसे नक्सलियों के कथित हितैषी बनाएं। अपनी मांगों को मनवाने के लिए अफजल गुरू जैसे लोग धरने पर बैठें। बेहतर होता यदि टीम अन्ना समिति में शामिल हुए बगैर विधेयक के संबंध में अपने सुझाव देती और संसद उन पर बहस के बाद विधेयक पारित करती। इससे सांविधिक संस्था में असांविधिक लोगों का अनाधिकृत प्रवेश भी नही होता और न ही भविष्य के लिए गले में हड्डी जैसी कोई नजीर ही बनती। साथ ही अन्ना उस तरह के आरोपों से भी नही घिरते जिनका सामना उन्हें करना पड़ रहा है। बेशक मेधा के लिहाज से समिति में पिता-पुत्र को शामिल किया जाना गलत नही कहा जा सकता, लेकिन क्या यह उचित नही होता कि उस समिति में कोई पिता या पुत्र अपनी जगह किसी और का नाम प्रस्तावित करता। वैसे भी पिता अपने सुझावों से अपने पुत्र को अवगत करा सकता था और पुत्र अपनी सोच पिता को बता सकता था लेकिन दुर्भायवश ऐसा हो न सका। मंच पर जो आंदोलन हाईजैक न हुआ, वह अन्यत्र दुर्भावना की भेंट चढ़ गया।
अब जबकि अन्ना के रुख में गजब का परिवर्तन आया है। अड़ियल रवैया छोड़कर वह नरमपंथी होने की ओर हैं। ऐसे में हम यह प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर उन्हें यह समझ दे कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए यह भी जरूरी है कि काली कमाई का सामाजिक जीवन में प्रवेश न होने दें। भले ही यह उनके लिए लाखों रूपए के चंदे की रकम के रूप में क्यों न हो। यही कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए सेलिना जेटली या प्रियंका चोपड़ा से समर्थन हासिल करने से कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प चुनाव प्रक्रिया में सुधार का हो सकता है। विधि का निर्माण विधायिका का ही काम है, उसे करने दें। ज्यादा इच्छा हो तो लोगों को सीधे चुनाव में उतरकर हराएं, संवैधानिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर के नहीं।