देश में भाषा को लेकर मतभिन्नता नई नही है। चाहे वह नेहरू और पटेल का युग हो या मनमोहन सिंह का। हिंदी को लेकर बहस जारी है। लेकिन बीते दिनों हैदराबाद में हिंदी का जलवा देखकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों में अपनी राजभाषा के साथ सौतेले बर्ताव के किस्से हवा हो गए। देख-सुनकर अच्छा लगा कि दक्षिण भारत में आहिस्ता-आहिस्ता ही सही लेकिन हिंदी के लिए दिल के दरवाजे खुल रहे हैं।
यूं तो आंध्रप्रदेश में तेलुगु का सिक्का चलता है, लेकिन हिंदी बोलने वालों की भी वहां कमी नही है। इसमें मूल रूप से आंध्र के रहने वाले भी हैं और हिंदी भाषी प्रदेशों से रोजगार की तलाश में आकर बसे लोग भी। कम्पोजिट कल्चर के इस शहर में हिंदी बोलने वालों को हिकारत की नजर से नही देखा जाता। अपनों से अपनों की बातचीत का जरिया जहां तेलुगु है, वहीं कामकाज में हिंदी का चलन बना हुआ है। बिल्कुल हिंदी पट्टी की तरह जहां भले ही गांव-परिवार में बृज, अवधी या अन्य कोई बोली अभिव्यक्ति का माध्यम हो लेकिन कामकाज के लिए खड़ी बोली ही प्रयुक्त की जाती है। कुल मिलाकर हैदराबाद में यही महसूस होता है कि इस मेगा सिटी के साथ आंध्र प्रदेश केवल टेक्नोलॉजी में ही आगे नही बढ़ रहा बल्कि उसके अपने लोगों की सोच का दायरा भी बढ़ रहा है।
इससे पहले मेरे पास अपने उन मित्रों के सुनाए संस्मरण थे जो या तो दक्षिण भारत में रह रहे हैं या फिर जिन्होंने कभी वहां की यात्रा की है। उनके अनुसार दक्षिण भारत में हिंदी के प्रति रवैया बिल्कुल वैसा है जो एक ब्याहता का अपनी सौतन के साथ होता है। मतलब, हिंदी भाषी लोग वहां फूटी आंख किसी को नही सुहाते। यहां तक कि जिन लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाएं नही आतीं, उन्हें अंग्रेजी बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है न कि हिंदी। बहरहाल हिंदी पर अंग्रेजी को दी जाने वाली वरीयता समझ से परे ही है। वहीं हैदराबाद में हिंदी के प्रति बदला नजरिया भविष्य की हिंदी और उसकी बहस के पटाक्षेप का शुभ संकेत ही है। हैदराबाद से जहां गैर हिंदी प्रदेशों में भाषायी सीमा टूटने का अथ हुआ है, वहीँ इति भी कहीं न कहीं से जरूर होगी।
utaaam bhai sahab...... sach hai par hyderabad se ek kilo meter bahar jaane par tasvir ulti dikhti hai....... fir bhi yahan apnapan hai....
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