मीडिया में सीएनएन-आईबीएन की डिप्टी एडीटर सागरिका घोष एक ब्रांड की तरह हैं। जो कुछ भी वह लिखती हैं, उसका ईको साउंड होता है। लोग चर्चा करते है, उस पर बहस होती है और कुछ सार्थक सामने आता है। सोशल मीडिया में उनकी लोकप्रियता का अंदाजा टिवटर पर उनके डेढ़ लाख से ज्यादा फॉलोअर्स से लगाया जा सकता है। लेकिन हाल ही में वह अपनी इसी लेखनी के चलते विवादों में हैं। ऐसा ही कुछ-कुछ दलित लेखन को धार देने वाली लेखिका मीना कंडासामी के साथ हो रहा है। मामले की जड़ में कंडासामी का एक ट्वीट है जो उन्होंने हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी में आयोजित एक बीफ फेस्टीवल से लौटने के बाद किया। टिवटर पर अपने हजारों फॉलोअर्स को संबोधित करते हुए उन्होंने खुद के वहां एंजॉय करने की बात कही।
इंग्लिश में उनकी बात कुछ इस तरह थी - " was at the osmania university beaf-eating festival. Awesome experience in spite of # violence by abvp# Hyderabad". इसके बाद वही हुआ जिसकी आशंका हर समझदार व्यक्ति को हो सकती है। इन लेखिकाओं की भद उनके ही कुछ फॉलोअर्स ने पीटकर रख दी। कुछेक इस सीमा तक भी पहुंच गए कि उन्होंने पढ़े-लिखे तबके की इन महिलाओं की मय्यो करने से भी गुरेज नही किया।
यह दो मामले काफी हैं यह बताने के लिए कि सोशल मीडिया में आपके लिखने के क्या नतीजे हो सकते हैं। दोनों ही मामलों में कथित सेकुलर लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का नारा बुलंद कर सकते हैं। कह सकते हैं कि लिखने वालों ने अपनी निजी राय जगजाहिर की तो इसमें भड़कने जैसा क्या है।
दरअसल यह न्यू मीडिया का दौर है। खुद की छपास की डेफिशिएंसी का पोषण करने की चुनौती बड़ी हस्तियों के भी सिर चढ़कर बोल रही है। ऐसे में कुछ भी ऊल-जलूल लिखने से पहले हमें दस बार सोचना चाहिए कि हमारे लिखे का सोसायटी पर क्या इम्पैक्ट पड़ेगा। हाल में तेजी से बढ़ा यह 'बद' चलन हम में से कुछ की मेंटेलिटी भी शो करता है कि हम चीजों को किस ढंग से लेते हैं। पब्लिकली हमारी कही या लिखी ऐसी कोई भी बात जिससे दूसरों की फीलिंग हर्ट होती हों, कभी वाजिब नही ठहराई जा सकती।
अभी ज्यादा दिन नही हुए। दिल्ली रेप कांड की घटना के तुरंत बाद फेसबुक पर साहित्य जगत की एक चर्चित महिला सोशल एक्टीविस्ट का स्टेट्स अपडेट सभी को हैरान कर के रख गया। उस अपडेट में उन्होंने उस पीड़िता लड़की की जाति को निशाना बनाते हुए अगड़ा बनाम पिछड़ा की अपनी लड़ाई का आह्वान किया था। बताया गया कि फलां पीड़िता चूंकि सवर्ण है इसलिए लोगों में आक्रोश है। उन भद्र महिला की इस सोच पर गुस्से से ज्यादा तरस आता है। महसूस होता है कि शायद इन्हें नही पता कि यह आखिर क्या कर रही हैं। इसीलिए जब पूरे देश में उस घटना को लेकर गुस्सा था, तब वह शर्मनाक ढंग से उस लड़की की जाति पता कर रही थीं।
नक्सलवाद से जुड़े कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की पोस्ट देखता हूं, तो भी मन में कोफ्त सी होती है। जेहन में अचानक उन जवानों की कतारबद्ध लाशों की तस्वीर घूमने लगती हैं जिन्हें धोखे से उस बुजदिल सिस्टम की भेंट चढ़ा दिया गया। जहां आप सिर्फ इसलिये पहले हथियार नहीं चला सकते की कहीं कोई बेगुनाह न मर जाये। लगता है कि मानवाधिकार के इन कथित पैरोकारों ने जरूर पिछले जन्म में कुछ पुण्य किए होंगे जो भारत जैसे देश में जन्म लिया। कहीं और होते तो अब तक पिछवाड़े पर लात देकर सीधा दोजख का रास्ता दिखा दिया गया होता।
बौद्धिक दिवालियेपन का यह सिलसिला एक-दो लोगों तक सीमित नही है। पढ़े-लिखे लोगों की एक पूरी जमात है जो खुद को प्रगतिशील बताते हुए इस देश के अंदर टुकड़े-टुकड़े में जी रहे हैं। वे रहते जरूर भारत में हैं लेकिन खुद को भारतीय नही मानते। उनका दिल पड़ोसी मुल्कों के लिए धड़कता है। विदेशी मीडिया को मसाला देने के लिए वे सिर्फ विरोध के लिए विरोध की मुंह चाबर करते हैं। यहां तक कि सरबजीत की हत्या पर भी उनके आंसूं नहीं बडबोले बयान बाहर आते हैं। उन्हें हर चीज में कुछ न कुछ सिस्टम विरोधी खंगालना है।
सोशल मीडिया की ताकत से वह देश और दुनिया में अपनी जैसी ओछी मेंटेलिटी वाले लोगों को बताते हैं कि प्रतिकार इस देश की संस्कृति नही है। तमाम लुटेरों ने अपनी हसरतें यहां पूरी की हैं, और आप भी इसकी अस्मिता लूट सकते हैं। लेकिन वह भूल जाते हैं कि यह न्यू मीडिया का पब्लिक फोरम है, आपके घर की दीवार नही कि जो चाहें सो लिख दें। यहां ईंट का जवाब पत्थर से ही मिलेगा। बचना है तो अपनी भाषा पर संयम रखना ही बेहतर होगा ।
good article
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