Sunday, July 25, 2010

वर्धा की खामोशी और गांधी जी का टेलीफोन केबिन

वैसे तो गांधी जी को भारत में किसी एक जगह से जोड़कर देखा जाना गलत होगा फिर भी साबरमती आश्रम के बाद अगर कोई जगह गांधी जी की सबसे पसंदीदा कही जा सकती है तो वह है वर्धा आश्रम। गांधी साहित्य में तमाम बार पढ़ चुके इस स्थान पर हाल ही में एक मित्र के साथ जाना हुआ। नागपुर से करीब 80 किमी दूर सेवाग्राम रेलवे स्टेशन पर उतरकर सीधे बापू की कुटिया पहुंचे। आश्रम में कदम रखते ही मैं उन सब जगहों और चीजों से रूबरू होने के लिए बेसब्र हो उठा, जो मैंने पढ़ी और सुनी थीं। खासतौर पर उस प्रार्थना स्थल को देखने का बड़ा मन था, जहां हर शाम को सभी आश्रमवासी एकत्रित होकर बापू की बात सुनते थे। एक और चरित्र था जिसके बारेे में गांधी जी और कस्तूरबा से ज्यादा जानने की इच्छा थी, वो थीं मेडलिन स्लेम या गांधी जी के दिए नाम से पुकारें तो-मीरा बेन। आश्रम के रास्ते में एक सड़क भी उनके नाम पर मिली।

           आश्रम में एक निर्बाध शांति छाई थी। इक्का दुक्का देशी पर्यटकों को छोड़ दें तो केवल एक दो आश्रम के लोग ही वहां नजर आ रहे थे। बापू की कुटिया में बापू के टेलीफोन का केेबिन अलग ही था। वहीं प्रार्थनास्थल के पीछे खादी के कपड़े बिक्री के लिए रखे थे। हमने कुर्ते खरीदने के बारे में अपनी इच्छा जाहिर की तो बताया गया कि केवल शर्ट मिलेंगी या फिर कपड़ा। कुर्तें वहां नहीं हैं। कुल मिलाकर कभी जन-जन की आजादी का जयघोष करने वाली इस जगह में सिर्फ खामोशी ही पसरी हुई दिखी। वो भी बिल्कुल किसी मातमपुर्सी के दिन की याद ताजा करती हुई। लगा जैसे गांधी जी की हत्या कल की ही बात हो।
         
        हालांकि आश्रम के एक दूसरे हिस्से में एक स्कूल में कुछ बच्चे जरूर पढ़ते हुए जिंदगी की बसावट को बयान करते नजर आए। एक कुआं भी था जिसे अब बंद कर जाली से ढक दिया गया है। काफी कुछ था देखने-दिखाने लायक- बा की रसोई, मीराबेन की कुटिया, आश्रम में लगा पीतल का घंटा। बापू की कुटिया में चटाइयां, लिखने-पढ़ने की चैकी समेत कई ऐतिहासिक चीजें खुद के उस व्यक्ति से जुड़े होने की गवाही दे रहीं थीं, जिसके बारे में आने वाली पीढ़ियों में से शायद ही कोई यकीन करे कि कभी धरती पर ऐसा भी एक व्यक्ति हुआ था। इस सबके बीच एक टेलीफोन केबिन ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। सार्वजनिक जीवन जीने की वकालत करने वाले गांधी जी की कुटिया में निजता की पहचान माने जाने वाला टेलीफोन केबिन कुछ अटपटा सा लगा। उसमें उसी जमाने का एक टेलीफोन भी रखा था। शायद उस दौर में आश्रम में ऐसी खामोशी नहीं होती होगी, जैसी कि आज दिखती है। लोगों की भीड़ से आश्रम में शोरगुल जरूर ही होगा। वरना गांधी जी को अपनी बातचीत के लिए भला केबिन की आवश्यकता क्यों पड़ती। आश्रम के बाहर एक रेस्तरां में प्राकृतिक भोजन की व्यवस्था थी। टेबल कुर्सी के बजाए यहां चटाई पर विशुद्ध भारतीय तरीके से पालती मारकर भोजन करना भी आनंददायक रहा।

        यहां एक बात का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा कि पिछले साल तक मैं भी उन लोगों में से एक था जो बापू को भारत विभाजन के लिए दोषी मानते थे। वहीं जब फ्रांसीसी लेखिका कैथरीन क्लैमा की लिखी पुस्तक 'एडविना और नेहरू' पढ़ी तब जाकर पता चला कि राजनीतिक गांधी के पीछे सक्रिय दूसरे गांधी अनदेखे रह गए। उनके बारे में महत्वपूर्ण यही है कि उनकी नजर आम आदमी से कभी हटी नहीं और अंतिम आदमी उनकी नजर में हमेशा रहा।