Friday, October 29, 2010

ईमानदारी के जोखिम !

   भ्रष्टाचार के खिलाफ हम बचपन से पढ़ते-सुनते आए हैं। जैसे- भ्रष्टाचार का खात्मा होना चाहिए। भ्रष्टाचार हमारे देश की तरक्की में बाधक है। भ्रष्टाचार हमारे देश को दीमक की तरह चाट रहा है। भ्रष्टाचारियों की जगह जेल में होनी चाहिए। वगैरह-वगैरह। लेकिन असल जिंदगी जिसे प्रैक्टिकल लाइफ कहा जाता है, में इससे उलट ही होते देखा है। अखबारों में आजकल हम इस समस्या   निवारण के लिए बाकायदा सतर्कता जागरूकता सप्ताह मनाने की खबरें देखतें हैं, वहीँ दूसरी ओर एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारा देश शर्मनाक ढंग से ग्लोबल ऑनेस्टी इंडेक्स में 87 से 84वें स्थान पर आ गया है । ऐसे में इस बारे में दूसरे ढंग से सोचा तो कई नयी जानकारी मिलीं। 
जैसे - ईमानदारी अपने साथ कई सारे जोखिम भी लेकर आती है। मसलन - 1. ईमानदार व्यक्ति सोसायटी जिसे सभ्य समाज भी कहा जाता है, से अलग-थलग हो सकता है। 2. हाथ-पैर टूटने से लेकर जान जाने तक की क्षति हो सकती है। 3. ताउम्र की दरिद्रता के लिए परिजनों के ताने सुनने पड़ सकते हैं। 4.अगर बेटी है तो उसकी शादी अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो सकती है और बेटा हुआ तो उसके उच्च शिक्षा के नाम पर बीए-एमए ही कर पाने की संभावना ज्यादा हैं बजाए डाक्टरी या इंजीनियरिंग के। तो कुल मिलाकर ईमानदार टाइप के व्यक्ति का जीवन जोखिमों से भरा हुआ है। कदम-कदम पर उसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है। दो टूक कहा जाए तो जो जितना ज्यादा ईमानदार उसको उतने ही ज्यादा जोखिम। पहले गलत काम के लिए रिश्वत का चलन लेकिन अब सही काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। यहां तक कि सहूलियत के लिए रिश्वत का नाम बदलकर भी सुविधा शुल्क कर दिया गया। बड़े-बूढ़े बताते हैं कि एक जमाना था जब सरकारी कार्यालयों में रिश्वत लेने वाले कर्मचारी को लोग हिकारत भरी नजरों से देखते थे और अब यह जमाना है कि रिश्वत न लेने वाले कर्मचारी को लोग हिकारत की नजरों से देखते हैं। ऐसा हो भी क्यों न, हर ओर रिश्वत का बोलबाला जो है।

   इस सबके बीच एक और महत्वपूर्ण तथ्य है जिसका जिक्र करना जरूरी है, वह है जोखिमों के बावजूद ईमानदारी का साथ न छोड़ने वाले लोगों के प्रति हमारे अंदर का नजरिया। वह नजरिया जिसमें हम जुबान से तो भले ही उन्हें बेवकूफ बता दें और अपने ईमानदारी के जोखिमों का न्यौता खुद को देने के लिए उनको जिम्मेदार ठहराएं लेकिन मन ही मन हम उस व्यक्ति की जीवटता की सराहना भी करते हैं। ऐसे ही ईमानदारी का एक जोखिम बिहार की सड़कों का सूरत-ए-हाल बदलने के लिए सत्येंद्र दुबे ने उठाया। नतीजा उनकी शहादत के रूप में दुनिया के सामने है। ऐसे ही एक और व्यक्ति को मैं जानता हूं जिन्होंने प्रतिनियुक्ति पर एक सरकारी संस्था में जाकर भ्रष्टाचारियों की ऐसी तलीझाड़ सफाई की कि खुद उनका महकमा भी हिल गया। चार राज्यों में चार सौ से ज्यादा ऐसे कालेजों की मान्यता खत्म कर दी जहां कागजों में तो डिग्री कॉलेज चल रहे थे लेकिन धरातल पर हो रही थी सिर्फ गेहूं और ज्वार की फसल। नतीजन वही हुआ जो हर ईमानदार के साथ होता है। पहले शिक्षा माफिया मान-मनौव्वल में जुटे। न माने तो फिर रास्ता घेरा गया, हाथ-पैर तुड़वाने से लेकर हत्या तक की धमकी भी दी गईं। कोर्ट के आदेश पर सुरक्षा मिली तो फिर दूसरे हथकंडे अपनाए गए। जो व्यक्ति रिश्वत की चाय तक पीना गवारा न करता हो उसके खिलाफ फर्जी शिकायतों का ढेर लग गया। यहां तक कि कर्जा होने के बावजूद उन्हें आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने का भी आरोपी बना दिया गया। यह बात अलग है कि जांच में साबित एक भी न हुआ लेकिन अपनी इस ईमानदार करनी का फल वह आज भी भुगत रहे हैं।

   एक-दो को तो मैं जानता हूं लेकिन न जाने ऑनेस्टी के ऐसे कितने आइकन होंगे जिन्होंने ईमान की सलामती के लिए बड़ी कीमत चुकाई। भले ही इससे भ्रष्ट तंत्र और उसके झंडाबरदारों के कानों पर जूं न रेंगी हो लेकिन नई जमात को आत्म चिंतन का रास्ता दिखा दिया। जता दिया कि ईमानदारी का रास्ता मुश्किल जरूर हो लेकिन आत्मा के चैन और सुकून तक ले जाता है, जबकि बेईमानी शुरूआत में कितनी भी विलासिता क्यों न लेकर आए, अंत उसका कष्ट भोगने से ही   होता है।

    मौजूदा दौर में सत्येंद्र जैसे लोग ईमानदारी का दूसरा नाम हैं। ऐसे लोग जिन्होंने दरिद्रता या फिर जान के खतरे जैसे किसी दबाव में भ्रष्ट तंत्र के आगे समर्पण नही किया बल्कि सच्चे ईमान के साथ उसके सफाए को ही निकल पड़े। मुट्ठी भर लेकिन असली जिगर वाले इन लोगों ने समाज के सामने उदाहरण पेश किया और हमेशा के लिए अमर हो गए। आप भी सोचेंगे कि ऐसी अमरता किस काम की जिसमें आगा-पीछा न देखा जाए। बीवी-बच्चों को बेसहारा छोड़ जाएं। दरअसल सच्चाई की मिसाल बनने वाले लोगों की यही खूबी रही कि इन्होंने अपनी जिंदगी में ईमानदारी का अभिनय नही किया, बल्कि ईमानदारी को जिया। उन लोगों की तरह जिन्हें जब तक मौका न मिले भ्रष्टाचार के खिलाफ गाल बजाते रहें और जब मौका मिले तो चुपचाप भ्रष्ट हो जाएं। ऐसे भी यह लोग न थे। यहां तक कि अपनी लड़की की शादी या कमजोर आर्थिक स्थिति का बहाना लेकर भी जैसी कि स्वीकार्यता है, इन्होंने अपने नीतिगत सिद्धांतों को दरकिनार न किया।

   सच पूछा जाए तो भ्रष्टाचार के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है नई पीढ़ी के आत्मबल का कमजोर होना तथा उस धार्मिक भावना का ह्ास होना जिसमें हम यह मानते हैं कि कोई ईश्वरीय शक्ति हमें संचालित कर रही है और अगर गलत काम करेंगे तो वह हमें इसका दण्ड देगी। अब इसी धर्मसत्ता पर उस राजसत्ता की पकड़ मजबूत हुई है,  जिसमें समझा जाता है कि कानून की आंखों में धूल झोंकना सरल है। बचपन में ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन से शुरू यह आदत बाद में टैक्स चोरी और फिर भ्रष्टाचार में बदल जाती है। रिश्वत देकर नौकरी देने वाला सबसे पहले अपनी उस लागत को रिश्वत के रूप में ही लोगों से वसूलता है जो उसने नौकरी के लिए दी थी। उसके बाद इसका चस्का उसे कुछ और नीतिगत सोचने-समझने का वक्त ही नही देता। हमारे बुजुर्ग एक बात और काम की कहते हैं जो शायद हर रिश्वतखोर और भ्रष्ट व्यक्ति को याद रखनी चाहिए कि ‘चोरी का माल मोरी यानी नाली में ही जाता है।’ मतलब, बुरे काम का नतीजा भी बुरा ही होता है। हो सकता है कि काला धन ज्यादा दिन आपके पास नही टिक सकता। आपके पास सिर्फ वही रह जाएगा जो आपने ईमानदारी से कमाया है और जो आपको देय है।

Monday, October 25, 2010

दक्षिण भारत में खुलते दिल के दरवाजे

देश में भाषा को लेकर मतभिन्नता नई नही है। चाहे वह नेहरू और पटेल का युग हो या मनमोहन सिंह का। हिंदी को लेकर बहस जारी है। लेकिन बीते दिनों हैदराबाद में हिंदी का जलवा देखकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों में अपनी राजभाषा के साथ सौतेले बर्ताव के किस्से हवा हो गए। देख-सुनकर अच्छा लगा कि दक्षिण भारत में आहिस्ता-आहिस्ता ही सही लेकिन हिंदी के लिए दिल के दरवाजे खुल रहे  हैं।

यूं तो आंध्रप्रदेश में तेलुगु का सिक्का चलता है, लेकिन हिंदी बोलने वालों की भी वहां कमी नही है। इसमें मूल रूप से आंध्र के रहने वाले भी हैं और हिंदी भाषी प्रदेशों से रोजगार की तलाश में आकर बसे लोग भी। कम्पोजिट कल्चर के इस शहर में हिंदी बोलने वालों को हिकारत की नजर से नही देखा जाता। अपनों से अपनों की बातचीत का जरिया जहां तेलुगु है, वहीं कामकाज में हिंदी का चलन बना हुआ है। बिल्कुल हिंदी पट्टी की तरह जहां भले ही गांव-परिवार में बृज, अवधी या अन्य कोई बोली अभिव्यक्ति का माध्यम हो लेकिन कामकाज के लिए खड़ी बोली ही प्रयुक्त की जाती है। कुल मिलाकर हैदराबाद में यही महसूस होता है कि इस मेगा सिटी के साथ आंध्र प्रदेश केवल टेक्नोलॉजी में ही आगे नही बढ़ रहा बल्कि उसके अपने लोगों की सोच का दायरा भी बढ़ रहा है।

इससे पहले मेरे पास अपने उन मित्रों के सुनाए संस्मरण थे जो या तो दक्षिण भारत में रह रहे हैं या फिर जिन्होंने कभी वहां की यात्रा की है। उनके अनुसार दक्षिण भारत में हिंदी के प्रति रवैया बिल्कुल वैसा है जो एक ब्याहता का अपनी सौतन के साथ होता है। मतलब, हिंदी भाषी लोग वहां फूटी आंख किसी को नही सुहाते। यहां तक कि जिन लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाएं नही आतीं, उन्हें अंग्रेजी बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है न कि हिंदी। बहरहाल हिंदी पर अंग्रेजी को दी जाने वाली वरीयता समझ से परे ही है। वहीं हैदराबाद में हिंदी के प्रति बदला नजरिया भविष्य की हिंदी और उसकी बहस के पटाक्षेप का शुभ संकेत ही है। हैदराबाद से जहां गैर हिंदी प्रदेशों में भाषायी सीमा टूटने का अथ हुआ है, वहीँ इति भी कहीं न कहीं से जरूर होगी।