Saturday, December 11, 2010

क्लाइमेट चेंज के बीच सूखता आंखों का पानी !

   क्लाइमेट चेंज को ग्लोबल वार्मिंग कहना है या फिर ग्लोबल कूलिंग, वैज्ञानिक भले ही यह तय न कर पाए हों लेकिन लोगों की आंखों का पानी सूख रहा है, इस तथ्य पर सहमत हुए बिना नही रहा जा सकता। हाल की कुछ घटनाएं इस समस्या के वैश्विक स्वरूप को तर्कपूर्ण ढंग से सामने लाती हैं। जैसे कि, गोदामों में सड़ रहे खाद्यान्न को मुफ्त बांटने की बात पर जब केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप न करने की सीख दी गई तो भले ही केंद्र सरकार के नुमाइंदों को अहसास न हुआ हो, लेकिन भूख और गरीबी से त्रस्त जनता को पता चल गया कि आंखों का पानी सूख रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा जब खुद की तुलना हाईस्कूल के छात्र से की गई, तब सबके साथ खुद सत्तासीनों को भी इस बात का अहसास हो गया कि यह समस्या वास्तव में राष्ट्रीय स्तर की है, और खुद प्रधानमंत्री भी इस से अछूते नहीं हैं।

   अरूंधती राय ने जब भारत में बैठकर पाकिस्तान के सुर में कश्मीर की आजादी का सुर मिलाया तब शहीदों के परिजनों के साथ हर एक हिंदुस्तानी को महसूस हुआ कि वास्तव में आंखों के पानी के सूखने की यह समस्या देश में नदियों के सूखने से कहीं ज्यादा बड़ी है। इसी तरह आजादी बचाओ आंदोलन के प्रखर प्रवक्ता और स्वदेशी विचार से ओत-प्रोत राजीव दीक्षित के निधन के बाद भी जब राजनीति में जाने को अधीर बाबा रामदेव की भारत स्वाभिमान यात्रा स्थगित नही हुई, तब समझने वाले समझ गए कि यह समस्या महज राजनीतिज्ञों तक सीमित नही है, बल्कि योगी-जोगी भी इसके शिकार हो रहे हैं।

   ऐसा उस समय भी लगा, जब क्रिकेटर और सांसद अजहरूद्दीन की बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला के साथ अफेयर की खबरें संगीता बिजलानी के गमगीन चेहरे के साथ अखबारों की सुर्खियां बनीं। अजहर की पहली पत्नी नौरीन को याद करते हुए लोगों ने इसी समस्या की गंध महसूस की। इससे पहले खुद से तकरीबन आठ साल बड़ी पत्नी अमृता सिंह को गुड बाय बोल करीना से नाता जोड़ने वाले अभिनेता सैफ अली खान को लेकर भी लोगों के मन में ऐसे विचार पनपे थे।

   ऐसा नही कि जलवायु परिवर्तन का यह असर सिर्फ भारत में दिख रहा है। सुरक्षा परिषद में भारत के दावे की खिल्ली उड़ाने के विकीलीक्स खुलासे पर भी हर भारतीय को पता चल गया  कि आंखों का पानी सूखने की यह समस्या वास्तव में ग्लोबल है और दुनिया का सबसे ताकतवर देश भी इसकी जद में है। पाकिस्तान द्वारा बाढ़ पीड़ितों के लिए भारत की मदद ठुकराए जाने पर भी लोगों ने ऐसा ही कुछ महसूस किया।

   बहरहाल, घटनाएं कई हैं। गली-मुहल्ले से लेकर देश और दुनिया तक की, जो हमारे बीच संवेदनहीन लोगों की नंगी तस्वीर सामने रख देती हैं। एक जमाने में लोग ऐसी आंखों को जिनका पानी सूख जाता था, हेय दृष्टि से देखते थे और उस पर रिएक्ट करते थे लेकिन आज मनुष्य की फायदेवादी बुद्धि इस सबका न तो मौका देती है और ना ही समय। ऐसे में क्लाइमेट चेंज के बहाने हम इस सब पर भी गौर फरमा लें तो क्या बुरा है!

Friday, October 29, 2010

ईमानदारी के जोखिम !

   भ्रष्टाचार के खिलाफ हम बचपन से पढ़ते-सुनते आए हैं। जैसे- भ्रष्टाचार का खात्मा होना चाहिए। भ्रष्टाचार हमारे देश की तरक्की में बाधक है। भ्रष्टाचार हमारे देश को दीमक की तरह चाट रहा है। भ्रष्टाचारियों की जगह जेल में होनी चाहिए। वगैरह-वगैरह। लेकिन असल जिंदगी जिसे प्रैक्टिकल लाइफ कहा जाता है, में इससे उलट ही होते देखा है। अखबारों में आजकल हम इस समस्या   निवारण के लिए बाकायदा सतर्कता जागरूकता सप्ताह मनाने की खबरें देखतें हैं, वहीँ दूसरी ओर एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारा देश शर्मनाक ढंग से ग्लोबल ऑनेस्टी इंडेक्स में 87 से 84वें स्थान पर आ गया है । ऐसे में इस बारे में दूसरे ढंग से सोचा तो कई नयी जानकारी मिलीं। 
जैसे - ईमानदारी अपने साथ कई सारे जोखिम भी लेकर आती है। मसलन - 1. ईमानदार व्यक्ति सोसायटी जिसे सभ्य समाज भी कहा जाता है, से अलग-थलग हो सकता है। 2. हाथ-पैर टूटने से लेकर जान जाने तक की क्षति हो सकती है। 3. ताउम्र की दरिद्रता के लिए परिजनों के ताने सुनने पड़ सकते हैं। 4.अगर बेटी है तो उसकी शादी अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो सकती है और बेटा हुआ तो उसके उच्च शिक्षा के नाम पर बीए-एमए ही कर पाने की संभावना ज्यादा हैं बजाए डाक्टरी या इंजीनियरिंग के। तो कुल मिलाकर ईमानदार टाइप के व्यक्ति का जीवन जोखिमों से भरा हुआ है। कदम-कदम पर उसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है। दो टूक कहा जाए तो जो जितना ज्यादा ईमानदार उसको उतने ही ज्यादा जोखिम। पहले गलत काम के लिए रिश्वत का चलन लेकिन अब सही काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। यहां तक कि सहूलियत के लिए रिश्वत का नाम बदलकर भी सुविधा शुल्क कर दिया गया। बड़े-बूढ़े बताते हैं कि एक जमाना था जब सरकारी कार्यालयों में रिश्वत लेने वाले कर्मचारी को लोग हिकारत भरी नजरों से देखते थे और अब यह जमाना है कि रिश्वत न लेने वाले कर्मचारी को लोग हिकारत की नजरों से देखते हैं। ऐसा हो भी क्यों न, हर ओर रिश्वत का बोलबाला जो है।

   इस सबके बीच एक और महत्वपूर्ण तथ्य है जिसका जिक्र करना जरूरी है, वह है जोखिमों के बावजूद ईमानदारी का साथ न छोड़ने वाले लोगों के प्रति हमारे अंदर का नजरिया। वह नजरिया जिसमें हम जुबान से तो भले ही उन्हें बेवकूफ बता दें और अपने ईमानदारी के जोखिमों का न्यौता खुद को देने के लिए उनको जिम्मेदार ठहराएं लेकिन मन ही मन हम उस व्यक्ति की जीवटता की सराहना भी करते हैं। ऐसे ही ईमानदारी का एक जोखिम बिहार की सड़कों का सूरत-ए-हाल बदलने के लिए सत्येंद्र दुबे ने उठाया। नतीजा उनकी शहादत के रूप में दुनिया के सामने है। ऐसे ही एक और व्यक्ति को मैं जानता हूं जिन्होंने प्रतिनियुक्ति पर एक सरकारी संस्था में जाकर भ्रष्टाचारियों की ऐसी तलीझाड़ सफाई की कि खुद उनका महकमा भी हिल गया। चार राज्यों में चार सौ से ज्यादा ऐसे कालेजों की मान्यता खत्म कर दी जहां कागजों में तो डिग्री कॉलेज चल रहे थे लेकिन धरातल पर हो रही थी सिर्फ गेहूं और ज्वार की फसल। नतीजन वही हुआ जो हर ईमानदार के साथ होता है। पहले शिक्षा माफिया मान-मनौव्वल में जुटे। न माने तो फिर रास्ता घेरा गया, हाथ-पैर तुड़वाने से लेकर हत्या तक की धमकी भी दी गईं। कोर्ट के आदेश पर सुरक्षा मिली तो फिर दूसरे हथकंडे अपनाए गए। जो व्यक्ति रिश्वत की चाय तक पीना गवारा न करता हो उसके खिलाफ फर्जी शिकायतों का ढेर लग गया। यहां तक कि कर्जा होने के बावजूद उन्हें आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने का भी आरोपी बना दिया गया। यह बात अलग है कि जांच में साबित एक भी न हुआ लेकिन अपनी इस ईमानदार करनी का फल वह आज भी भुगत रहे हैं।

   एक-दो को तो मैं जानता हूं लेकिन न जाने ऑनेस्टी के ऐसे कितने आइकन होंगे जिन्होंने ईमान की सलामती के लिए बड़ी कीमत चुकाई। भले ही इससे भ्रष्ट तंत्र और उसके झंडाबरदारों के कानों पर जूं न रेंगी हो लेकिन नई जमात को आत्म चिंतन का रास्ता दिखा दिया। जता दिया कि ईमानदारी का रास्ता मुश्किल जरूर हो लेकिन आत्मा के चैन और सुकून तक ले जाता है, जबकि बेईमानी शुरूआत में कितनी भी विलासिता क्यों न लेकर आए, अंत उसका कष्ट भोगने से ही   होता है।

    मौजूदा दौर में सत्येंद्र जैसे लोग ईमानदारी का दूसरा नाम हैं। ऐसे लोग जिन्होंने दरिद्रता या फिर जान के खतरे जैसे किसी दबाव में भ्रष्ट तंत्र के आगे समर्पण नही किया बल्कि सच्चे ईमान के साथ उसके सफाए को ही निकल पड़े। मुट्ठी भर लेकिन असली जिगर वाले इन लोगों ने समाज के सामने उदाहरण पेश किया और हमेशा के लिए अमर हो गए। आप भी सोचेंगे कि ऐसी अमरता किस काम की जिसमें आगा-पीछा न देखा जाए। बीवी-बच्चों को बेसहारा छोड़ जाएं। दरअसल सच्चाई की मिसाल बनने वाले लोगों की यही खूबी रही कि इन्होंने अपनी जिंदगी में ईमानदारी का अभिनय नही किया, बल्कि ईमानदारी को जिया। उन लोगों की तरह जिन्हें जब तक मौका न मिले भ्रष्टाचार के खिलाफ गाल बजाते रहें और जब मौका मिले तो चुपचाप भ्रष्ट हो जाएं। ऐसे भी यह लोग न थे। यहां तक कि अपनी लड़की की शादी या कमजोर आर्थिक स्थिति का बहाना लेकर भी जैसी कि स्वीकार्यता है, इन्होंने अपने नीतिगत सिद्धांतों को दरकिनार न किया।

   सच पूछा जाए तो भ्रष्टाचार के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है नई पीढ़ी के आत्मबल का कमजोर होना तथा उस धार्मिक भावना का ह्ास होना जिसमें हम यह मानते हैं कि कोई ईश्वरीय शक्ति हमें संचालित कर रही है और अगर गलत काम करेंगे तो वह हमें इसका दण्ड देगी। अब इसी धर्मसत्ता पर उस राजसत्ता की पकड़ मजबूत हुई है,  जिसमें समझा जाता है कि कानून की आंखों में धूल झोंकना सरल है। बचपन में ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन से शुरू यह आदत बाद में टैक्स चोरी और फिर भ्रष्टाचार में बदल जाती है। रिश्वत देकर नौकरी देने वाला सबसे पहले अपनी उस लागत को रिश्वत के रूप में ही लोगों से वसूलता है जो उसने नौकरी के लिए दी थी। उसके बाद इसका चस्का उसे कुछ और नीतिगत सोचने-समझने का वक्त ही नही देता। हमारे बुजुर्ग एक बात और काम की कहते हैं जो शायद हर रिश्वतखोर और भ्रष्ट व्यक्ति को याद रखनी चाहिए कि ‘चोरी का माल मोरी यानी नाली में ही जाता है।’ मतलब, बुरे काम का नतीजा भी बुरा ही होता है। हो सकता है कि काला धन ज्यादा दिन आपके पास नही टिक सकता। आपके पास सिर्फ वही रह जाएगा जो आपने ईमानदारी से कमाया है और जो आपको देय है।

Monday, October 25, 2010

दक्षिण भारत में खुलते दिल के दरवाजे

देश में भाषा को लेकर मतभिन्नता नई नही है। चाहे वह नेहरू और पटेल का युग हो या मनमोहन सिंह का। हिंदी को लेकर बहस जारी है। लेकिन बीते दिनों हैदराबाद में हिंदी का जलवा देखकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों में अपनी राजभाषा के साथ सौतेले बर्ताव के किस्से हवा हो गए। देख-सुनकर अच्छा लगा कि दक्षिण भारत में आहिस्ता-आहिस्ता ही सही लेकिन हिंदी के लिए दिल के दरवाजे खुल रहे  हैं।

यूं तो आंध्रप्रदेश में तेलुगु का सिक्का चलता है, लेकिन हिंदी बोलने वालों की भी वहां कमी नही है। इसमें मूल रूप से आंध्र के रहने वाले भी हैं और हिंदी भाषी प्रदेशों से रोजगार की तलाश में आकर बसे लोग भी। कम्पोजिट कल्चर के इस शहर में हिंदी बोलने वालों को हिकारत की नजर से नही देखा जाता। अपनों से अपनों की बातचीत का जरिया जहां तेलुगु है, वहीं कामकाज में हिंदी का चलन बना हुआ है। बिल्कुल हिंदी पट्टी की तरह जहां भले ही गांव-परिवार में बृज, अवधी या अन्य कोई बोली अभिव्यक्ति का माध्यम हो लेकिन कामकाज के लिए खड़ी बोली ही प्रयुक्त की जाती है। कुल मिलाकर हैदराबाद में यही महसूस होता है कि इस मेगा सिटी के साथ आंध्र प्रदेश केवल टेक्नोलॉजी में ही आगे नही बढ़ रहा बल्कि उसके अपने लोगों की सोच का दायरा भी बढ़ रहा है।

इससे पहले मेरे पास अपने उन मित्रों के सुनाए संस्मरण थे जो या तो दक्षिण भारत में रह रहे हैं या फिर जिन्होंने कभी वहां की यात्रा की है। उनके अनुसार दक्षिण भारत में हिंदी के प्रति रवैया बिल्कुल वैसा है जो एक ब्याहता का अपनी सौतन के साथ होता है। मतलब, हिंदी भाषी लोग वहां फूटी आंख किसी को नही सुहाते। यहां तक कि जिन लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाएं नही आतीं, उन्हें अंग्रेजी बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है न कि हिंदी। बहरहाल हिंदी पर अंग्रेजी को दी जाने वाली वरीयता समझ से परे ही है। वहीं हैदराबाद में हिंदी के प्रति बदला नजरिया भविष्य की हिंदी और उसकी बहस के पटाक्षेप का शुभ संकेत ही है। हैदराबाद से जहां गैर हिंदी प्रदेशों में भाषायी सीमा टूटने का अथ हुआ है, वहीँ इति भी कहीं न कहीं से जरूर होगी।

Tuesday, August 24, 2010

पीपली लाइव: गू नहीं यह छी-छी है..!

'पीपली लाइव' फिल्म के एक दृश्य में नत्था के बेटे से एक पत्रकार पूछता है कि स्कूल में मिड-डे-मील मिलता है या नहीं। बच्चा हां में जवाब देता है। यह देख-सुनकर व्यंग्य, विनोद और विस्मय तीनों का अहसास हो गया कि जिस पीपली गांव में भ्रष्ट नौकरशाही और नेताओं के गठजोड़ के चलते राज्य सरकार की लगभग सभी योजनाओं को बुरी गत हुई हो, वहां केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई मिड-डे-मील योजना खूब फल-फूल रही है। ऐसे में लगा कि फिल्म का नाम असल में 'पीपनी लाइव' तो नही है।

'पीपनी' हिंदी पट्टी क्षेत्र के लिए नया शब्द नहीं है। पुंगी बजाने और सपेरों वाली बीन से इतर पीपनी के मायने उस मिट्टी से जुड़े बच्चे आसानी से समझते हैं, जिनके हित में यह फिल्म बनाने का दावा किया गया। शुरू से लेकर आखिर तक फिल्म में निर्माताओं की पीपनी बजती रही। देश में किसान समस्याओं के खिलाफ, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के खस्ताहाल साधनों के खिलाफ, भूख और गरीबी के खिलाफ, भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ और सबसे अहम मीडिया के मानसिक पतन के खिलाफ। लेकिन यह सब दिखाने के लिए जिस गंदगी को परोसा गया, वह उससे भी ज्यादा भौंडापन लिए था, जैसी यह चीजें वास्तव में दिखती हैं। ठीक उसी तरह जिसमें गंदगी को छी-छी कहकर हम उससे किनारा कर लेते हैं, कई जगह इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक अपने उद्देश्य से भटकते नजर आए।

फिल्म के पहले दृश्य से ही जिसमें नत्था की उल्टी पर फोकस किया गया है। साफ दिख जाता है कि फिल्म व्यावसायिक लाभ और विदेशी पुरस्कार हासिल करने के लिए बनाई गई है। अनावश्यक अपशब्दों का प्रयोग फिल्म को 'बी' ग्रेड फिल्मों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है, तो मीडिया को बेवजह निशाने पर लेना तर्कसंगत कम छिछलेदार ज्यादा है। नत्था के मल का विश्लेषण करने के बहाने फिल्मकारों ने जहां एक ओर भारतीय मीडिया की जमकर भद पीटी, वहीं मुख्य प्रदेश के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकारों को कठघरे में खड़ी करने मे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। इस सबके बीच एक तरह से केंद्र सरकार को क्लीन चिट सी दे दी गई है। और तो और फिल्म में राम की जगह शंकर को पदस्थापित करने की नाटकीयता भी पूरे ढंग से रची गई है। हम सभी जानते हैं कि आज भी उत्तर भारत के ज्यादातर गांवों में संबोधन 'जय राम जी' का होता है न कि जय शंकर की। शायद निर्माताओं को लगा कि जय राम जी के संवादों से राम की महिमा का बखान हो गया तो कहीं उनकी फिल्म की रिलीज न टल जाए। ऐसे में हर एक उस सीन पर कैंची चलाई गई जिससे केंद्र सरकार की छवि को नुकसान पहुंच सकता था। थोड़ा बहुत जो कहानी की मांग के अनुसार जरूरी था, वह कृषि मंत्रालय की भेंट चढ़ गया। यहां तक कि बेहद हिट हो चुके फिल्म के गाने 'महंगाई डायन...' का भी महज एक मुखड़ा ही पूरी फिल्म में सुनने को मिलता है। ऐसे में संवेदनशील विषयों को लेकर बनी यह फिल्म करीब दो घंटे में दर्शकों को सिनेमा हाल से बाहर कर देती है।

आज के दौर में जबकि आंचलिक अखबारों का चेहरा भी सकारात्मक खबरों के साथ बदल रहा है। कभी घटना आधारित रहा मीडिया अब 'सोच आधारित' हुआ है। गंदगी या कूड़े-करकट के फोटो अखबार के पन्नों से गायब होते जा रहे हैं। सामाजिक सरोकारों के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले लोगों की जमात नहीं सुधरी है। 'स्लमडाग मिलेनेयर' से 'पीपली लाइव' तक अपना छिद्रान्वेषण कराना एक चलन सा बन गया है। जिसमें 'गू' को छी-छी कहकर उस पर ईंट-पत्थर बरसाए जाते हैं। साफ करने के बजाए उसे छितराया जाता है। भले ही गंदगी के छींटे खुद हमारे दामन पर ही क्यों न आएं। कुल मिलाकर सोशल काॅज के नाम पर बनाई गई 'पीपली लाइव' अन्य मुंबईया फिल्मों की तरह विशुद्ध रूप से बाजार को ध्यान में रखकर तैयार की गई लगती है। फर्क बस इतना सा है कि इसमें बालीवुड फिल्मों की तरह एक आम आदमी और पत्रकार के मिलने पर भ्रष्ट तंत्र का सफाया नही होता बल्कि उसकी जीत होती है।







Sunday, July 25, 2010

वर्धा की खामोशी और गांधी जी का टेलीफोन केबिन

वैसे तो गांधी जी को भारत में किसी एक जगह से जोड़कर देखा जाना गलत होगा फिर भी साबरमती आश्रम के बाद अगर कोई जगह गांधी जी की सबसे पसंदीदा कही जा सकती है तो वह है वर्धा आश्रम। गांधी साहित्य में तमाम बार पढ़ चुके इस स्थान पर हाल ही में एक मित्र के साथ जाना हुआ। नागपुर से करीब 80 किमी दूर सेवाग्राम रेलवे स्टेशन पर उतरकर सीधे बापू की कुटिया पहुंचे। आश्रम में कदम रखते ही मैं उन सब जगहों और चीजों से रूबरू होने के लिए बेसब्र हो उठा, जो मैंने पढ़ी और सुनी थीं। खासतौर पर उस प्रार्थना स्थल को देखने का बड़ा मन था, जहां हर शाम को सभी आश्रमवासी एकत्रित होकर बापू की बात सुनते थे। एक और चरित्र था जिसके बारेे में गांधी जी और कस्तूरबा से ज्यादा जानने की इच्छा थी, वो थीं मेडलिन स्लेम या गांधी जी के दिए नाम से पुकारें तो-मीरा बेन। आश्रम के रास्ते में एक सड़क भी उनके नाम पर मिली।

           आश्रम में एक निर्बाध शांति छाई थी। इक्का दुक्का देशी पर्यटकों को छोड़ दें तो केवल एक दो आश्रम के लोग ही वहां नजर आ रहे थे। बापू की कुटिया में बापू के टेलीफोन का केेबिन अलग ही था। वहीं प्रार्थनास्थल के पीछे खादी के कपड़े बिक्री के लिए रखे थे। हमने कुर्ते खरीदने के बारे में अपनी इच्छा जाहिर की तो बताया गया कि केवल शर्ट मिलेंगी या फिर कपड़ा। कुर्तें वहां नहीं हैं। कुल मिलाकर कभी जन-जन की आजादी का जयघोष करने वाली इस जगह में सिर्फ खामोशी ही पसरी हुई दिखी। वो भी बिल्कुल किसी मातमपुर्सी के दिन की याद ताजा करती हुई। लगा जैसे गांधी जी की हत्या कल की ही बात हो।
         
        हालांकि आश्रम के एक दूसरे हिस्से में एक स्कूल में कुछ बच्चे जरूर पढ़ते हुए जिंदगी की बसावट को बयान करते नजर आए। एक कुआं भी था जिसे अब बंद कर जाली से ढक दिया गया है। काफी कुछ था देखने-दिखाने लायक- बा की रसोई, मीराबेन की कुटिया, आश्रम में लगा पीतल का घंटा। बापू की कुटिया में चटाइयां, लिखने-पढ़ने की चैकी समेत कई ऐतिहासिक चीजें खुद के उस व्यक्ति से जुड़े होने की गवाही दे रहीं थीं, जिसके बारे में आने वाली पीढ़ियों में से शायद ही कोई यकीन करे कि कभी धरती पर ऐसा भी एक व्यक्ति हुआ था। इस सबके बीच एक टेलीफोन केबिन ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। सार्वजनिक जीवन जीने की वकालत करने वाले गांधी जी की कुटिया में निजता की पहचान माने जाने वाला टेलीफोन केबिन कुछ अटपटा सा लगा। उसमें उसी जमाने का एक टेलीफोन भी रखा था। शायद उस दौर में आश्रम में ऐसी खामोशी नहीं होती होगी, जैसी कि आज दिखती है। लोगों की भीड़ से आश्रम में शोरगुल जरूर ही होगा। वरना गांधी जी को अपनी बातचीत के लिए भला केबिन की आवश्यकता क्यों पड़ती। आश्रम के बाहर एक रेस्तरां में प्राकृतिक भोजन की व्यवस्था थी। टेबल कुर्सी के बजाए यहां चटाई पर विशुद्ध भारतीय तरीके से पालती मारकर भोजन करना भी आनंददायक रहा।

        यहां एक बात का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा कि पिछले साल तक मैं भी उन लोगों में से एक था जो बापू को भारत विभाजन के लिए दोषी मानते थे। वहीं जब फ्रांसीसी लेखिका कैथरीन क्लैमा की लिखी पुस्तक 'एडविना और नेहरू' पढ़ी तब जाकर पता चला कि राजनीतिक गांधी के पीछे सक्रिय दूसरे गांधी अनदेखे रह गए। उनके बारे में महत्वपूर्ण यही है कि उनकी नजर आम आदमी से कभी हटी नहीं और अंतिम आदमी उनकी नजर में हमेशा रहा।

Monday, April 26, 2010

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो....

सवाल यह नहीं कि मसला हल कौन करे, सवाल तो यह है कि पहल कौन करे। नासूर बन चुकी नक्सली समस्या पर कुछ ऐसा ही हाल है हमारे देश के नेताओं का। दंतेवाड़ा की घटना के बाद भी जितनी ढपली उतने राग की तर्ज पर हर कोई अपनी-अपनी कह रहा है। कोई भी एक दूसरे की बात सुनने को तैयार नहीं। कांग्रेसी घटना के लिए मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह से इस्तीफा देने की मांग कर रहे हैं तो उनके नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपनी ही सरकार के गृहमंत्री चिदंबरम की कार्यशैली पर अंगुली उठा रहे हैं। वहीं बीजेपी भी जडें खोद-खोदकर समस्या के लिए पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को कठघरे में खड़ा कर रही है। नक्सल प्रभावित इलाके में कांग्रेस पार्टी के शासनकाल में उसके नेताओं के दौरों की जानकारी निकलवाई जा रही है।

           बहरहाल नेताओं में नक्सली समस्या जैसे संवेदनशील मुद्दे को हल करने पर भी आम सहमति अभी तक नहीं बन सकी है। अब जबकि गृह मंत्रालय को नक्सलियों से हिंसा छोड़ने का आग्रह बाकायदा अखबार में विज्ञापन देकर किया जा रहा है, इन नेताओं को धिक्कारने का मन करता है। महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष के इस देश में क्या एक भी ऐसा नेता नहीं बचा जो जनता को मोबिलाइज कर सके।

         मौजूदा दौर में जबकि हर नेता खुद के गरीबपरस्त होने की बात कहता है, किसी ने भी नक्सली समस्या के समाधान को जमीनी पहल नहीं की। माओवादियों के समर्थक हों या विरोधी, किसी ने भी ताड़मेटला या दंतेवाड़ा का रुख करना उचित नहीं समझा। अरे भाई! अगर माओवादियों के समर्थक हो तो जंगल के भटके लोगों से घबराना कैसा और विरोधी हो तो गुमराह हुए लोगों को समझाने में भला क्या अड़चन। दूर के नहीं तो कम से कम पास के ऐसे नेता तो गुमराह लोगों के पास जा ही सकते हैं जिन्होंने नक्सली हिंसा को नजदीकी से देखा हो। कमोबेश हर राजनीतिक दल के पास ऐसे नेताओं की अच्छी खासी संख्या है।

            हमें यह समझना होगा कि एअर कंडीशंड कमरों में बैठकर नक्सली समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आज के दौर में नक्सली वास्तव में हताशा के चलते भटके हुए लोग हैं, जिनके बल पर माओवादी जीत बोलते हैं। अगर ऐसे लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाया जाए तो कोई सूरत नहीं कि नक्सली समस्या जड़ से मिट जाएगी। जमीनी नेताओं की एक ईमानदारी कोशिश की देर भर है, माओवादियों की चूलें हिल जाएंगी और ऐसे नेताओं के लिए यह मौका भी होगा खुद को जन, जंगल, जमीन और जानवर का सच्चा हितैषी साबित करने का।

जवानों को कैनन फोडर तो न बनाएं!

बीते दिनों छत्तीसगढ से आगरा आते हुए ट्रेन में कुछ सीआरपीएफ के जवानों से बातचीत हुई तो नक्सली हिंसा के खौफनाक सच से वाकिफ हुआ। लगा कि कारगिल के युद्ध से ज्यादा खतरनाक तो जंगल की लड़ाई है। कारगिल में उंची चोटियों पर बैठे दुश्मन के बारे में जानकारी तो थी लेकिन नक्सल प्रभावित जंगल में किस पेड़ से या पत्तों के झुरमुट से जहरीला तीर गर्दन मेें आ लगे, कोई तो नहीं जानता। कारगिल में कुछ पता हो या न हो लेकिन गोली की दिशा  जरूर पता थी लेकिन जंगल में तो उसका भी पता नहीं। जाने किस ओर से गोली आ धंसे, कोई नहीं जानता।
बातचीत का लव्वोलुआब यह कि जंगल की लड़ाई का कोई स्टैंडर्ड आॅपरेटिंग प्रोसीजर नहीं होता। नियम भी सख्त होते हैं। जंगल में संभावित दुश्मन पर पहला फायर जवान अपनी ओर से नहीं कर सकते। क्या पता गोली किसी बेकसूर को लग जाए। दुश्मन सिर्फ वही माना जाएगा, जिसके पास हथियार हों या जो हमला करे। 40-45 किमी की पैट्रोलिंग और फिर जंगल की कठिन परिस्थितियां। ऐसे में कोई चूक हो भी जाए तो मानवाधिकार संगठनों और मुकदमों का डर। चाहकर भी दुश्मन को आगे बढ़कर नहीं दबोच पाते। शायद पीछे रहकर खतरा उठाना ही उनकी नियति बन चुका है। यात्रा के दौरान एक जवान ने कहा था कि हमें ऐसी लड़ाई में झोंका ज्यादा जाता है, जिसमें शहादत की संभावनाएं ज्यादा होती हैं और जीतने की कम। यह वाकया ताड़मेटला की घटना से पहले का है। अब सोचता हूं कि सीआरपीएफ के जवान गलत नहीं थे। बिना समुचित प्रशिक्षण के जंगल की अबूझ परिस्थितियों में जवानों को झोंककर कहीं कैनन फोडर तो नहीं बनाया जा रहा। अगर ताड़मेटला की घटना का सच भी ऐसा ही भयावह है तो यह हमारी चैन की नंीद के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले सुरक्षाबलों के मनोबल को तोड़ने वाली नीति है, जो भविष्य में हमारे लिए अधिक दुखदायी साबित होगी।

आदिवासी और अनादिवासी के बीच का फर्क

आदिवासियों के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले लोग यह नहीं जानते कि उन्हें आदिवासी कहकर वह पश्चिम की उस धारणा को और मजबूत करते हैं, जिसमें माना जाता है कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, वह बाहर से आए थे और यहां आकर बस गए। अनजाने में वह उन्हें आदिवासी कहकर खुद को अनादिवासी मान लेते हैं। वास्तव में कोई कहां से आया यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि किसी के दिल में यह देश कहां बसता है और वह अपने लोगोें के हित में कैसा और कितना सोचता है यह महत्वपूर्ण है। भलमनसाहत की इसी नीयत पर जब सवाल उठते हैं तो शायद कहीं न कहीं सलवा जुडूम जैसी उन कोशिशों को धक्का लगता है, जो आदिवासी और अनादिवासी के बीच के इस फर्क को कम करने के लिए लगातार जारी हैं।

Wednesday, April 21, 2010

शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं..


पानी और पर्यावरण पर काम के लिए जाने जाते हैं अनुपम मिश्र. अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' के साथ उन्होंने एक दूरगामी दृष्टि वाला प्रयोग किया. उन्होंने अपनी किताब पर किसी तरह का कापीराइट नहीं रखा. इस किताब की अब तक एक लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं! यहां प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-


सवाल- कापीराईट को लेकर आपका नजरिया यह क्यों है कि हमें अपने ही लिखे पर अपना दावा (कापीराईट) नहीं करना चाहिए?
जवाब- कापीराईट क्या है इसके बारे में मैं बहुत जानता नहीं हूं. लेकिन मेरे मन में जो सवाल आये और उन सवालों के जवाब में मैंने जो जवाब तलाशे उसमें मैंने पाया कि आपका लिखा सिर्फ आपका नहीं है. आप एक जीवन में समाज के किस हिस्से कब और कितना सीखते, ग्रहण करते हैं इसकी कोई लाईन खींचना कठिन काम है. पहला सवाल तो यही है कि मेरे दिमाग में जो है वह क्या केवल मेरा ही है? अगर आप यह मानते हैं कि आपका लिखा सिर्फ आपका है तो फिर आपको बहुत कुछ नकारना होगा. अपने आपको एक ऐसी ईकाई साबित करना होगा जिसका किसी से कोई व्यवहार नहीं है. न कुल परिवार से न समाज से. क्योंकि हम कुल, परिवार, समाज में बड़े होते हुए ही बहुत कुछ सीखते हैं और उसी से हमारी समझ बनती है. अगर आप कापीराईट का इतिहास देखें तो पायेंगे कि हमारे समाज में कभी कापीराईट की कोई प्रवृत्ति नहीं थी. अपने यहां कठिनत श्रम से प्राप्त की गयी सिद्धि को भी सिर्फ सेवा के निमित्त उपयोग की जाती है. मीरा, तुलसी, सूरदास नानक ने जो कुछ बोला, लिखा वह सब हाथ से कापियां लिखी गयीं. तमिलनाडु में ऐसे हजारों ग्रंथ हैं जो हाथ से लिखे गये और हाथ से लिखे ग्रंथ भी दो-ढाई हजार साल अनवत शुद्धत्तम स्वरूप में जिंदा रहे हैं. इसलिए यह कहना कि कापीराईट से मूल सामग्री से छेड़छाड़ होनी बच जाती है ऐसा नहीं है. िजनका जिक्र मैं कर रहा हूं वे सब बिना कापीराईट के भी शुद्धतम स्वरूप में लंबे समय तक बची रही हैं और आज भी विद्यमान हैं. उनको तो किसी कापीराईट एक्ट की जरूरत महसूस नहीं हुई फिर आपको क्यों होती है?
        कॉपीराईट का नियम अंग्रेजों के साथ भारत में आया लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि किसी के मन में कभी यह सवाल और संदेह नहीं उठा कि आखिर हम कापीराईट का इस्तेमाल क्यों करें? महात्मा गांधी तक ने अपनी कापीराईट एक ट्रस्ट नवजीवन ट्रस्ट को पचास साल के लिए दे दिया था. अब पचास साल बाद गांधी के लिखे पर फिर कापीराईट हट गया है. तो फिर महज पचास साल के लिए इसका पालन करने से गांधी विचार भी नहीं बच सका. यह सब देखकर आश्चर्य होता ही है.

सवाल- लेकिन आज के इस व्यावसायिक युग में किसी का लिखा उसका व्यवसाय भी हो सकता है जिससे उसके जिंदगी की गाड़ी चलती है. वो भला अपना लिखा समाज को अर्पित कर दे तो अपना गुजारा कैसे करेगा?
जवाब- जिस दिन हम केवल कमाने के लिए लिखने लगेंगे उस दिन हमारे लिखने की गुणवत्ता भी गिर जाएगी. लिखना केवल पैसे के लिए नहीं होना चाहिए. कुछ लोग पैसे के लिए काम करते हैं तो भी उनको ध्यान रखना चाहिए कि वे जो लिखना चाहते हैं वह लिखें न कि पैसे देकर उनसे कोई कुछ लिखवाता है तो केवल वही न करते रहें. समाजऋण भी कुछ होता है जिसको चुकाने की नैतिक जिम्मेदारी महसूस होनी चाहिए. अगर आप सिर्फ पैसे के लिए लिखेंगे तो कभी वह नहीं लिख पायेंगे जो आप लिखना चाहते थे. आप बाजार में अपना लिखा एक तराजू पर लेकर खड़े हो जाएं और अशर्फियों में बोली लगाना शुरू करेंगे तो मुश्किल होगी. फिर जो अशर्फी देगा वह आपके लिखे को ले जाएगा. असल में कापीराईट का व्यवसाय यह अशर्फी देनेवाला समाज पैदा करता है. क्योंकि उसको आपके लिखे से मुनाफा कमाना है. इसलिए लिखनेवालों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर वे किसके लिए लिख रहे हैं? एक बात जान लीजिए, अशर्फी लेकर लिखनेवाले लोग अस्तित्व में लंबे समय तक उपलब्ध नहीं रह पाते हैं. एक समय के प्रवाह में आते हैं और अशर्फी में तुलकर समाप्त हो जाते हैं. मुंबई फिल्म उद्योग में कम पैसा है? लेकिन जरा देखिए, कल के स्टार आज किस गर्त में पड़े हैं? यही आज के स्टारों के साथ कल होगा. यही बात लेखकों पर भी लागू होती है. अच्छे लिखनेवालों की कीमत बाजार में नहीं समाज में निर्धारित होनी चाहिए.
         जहां तक आजीविका चलाने की बात है तो इसमें व्यावहारिक दिक्कत कम और मानसिक संकट ज्यादा है. अगर हम बुद्धि के श्रम के साथ थोड़ा शरीर का श्रम भी जोड़ दें तो दिक्कत नहीं होगी. आखिर क्यों हम केवल बुद्धि के श्रम की कमाई ही खाना चाहते हैं? यह तो विकार है. सड़क पर कूदने से अच्छा है कि थोड़ी देर खेत में कूद लो. थोड़ा श्रम करके पूंजी अर्जित कर लो. केवल अपने लिखे का मत खाओ. तब शायद ज्यादा अच्छा लिख सकोगे. ऐसा जीवन मत जियो जो केवल लिखने पर टिका हो.

सवाल- टेक्नॉलाजी के इस युग में कापीराईट कितना प्रासंगिक रह गया है?
जवाब- टेक्नालाजी और कापीराईट दो विरोधाभासी तत्व हैं. जब टेपरिकार्डर आया तो वह सूटकेस के आकार में था. आप किसी जगह भाषण देते थे तो वह रिकार्ड होना शुरू हो गया. इसके बाद टेपरिकार्डर का आकार छोटा होता गया और आज हम मोबाइल में ही सब कुछ रिकार्ड कर सकते हैं. अब सोचिए किसी के भाषण पर कापीराईट का अब क्या मतलब? मेरे बोले को कौन कैसे रिकार्ड करके कहां पहुंचा देगा, मैं भला कैसे जान पाऊंगा? जैसे टेपरिकार्डर ने एक तरह के कापीराईट को खत्म किया उसी तरह फोटोकापी मशीन ने लिखे के कापीराईट को अप्रासंगिक बना दिया. अब कम्प्यूटर ने तो सारी हदें तोड़ दी हैं. पहले तो हाथ से मजदूरी करके कापी करना होता था लेकिन टेक्नालाजी ने शेयरिंग का सब काम आसान कर दिया है. फिर क्यों झंझट मोल लेते हो? संभवत: टेक्नालाजी हमें बता रही है कि देखो राजा! शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं. इसलिए इसका आग्रह छोड़ दो. जो संभव नहीं, उसका आग्रह रखने की क्या जरूरत है?

सवाल- आपने कहा कि केवल अपने िलखे का मत खाओ. क्या इसको आप थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?
जवाब- ऐसा कहने का मेरा आशय है कि इतना अच्छा लिखो कि तुम्हारे लिखे का कोई और भी खाये. मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आपके लिखे का सिर्फ प्रकाशक खाये. कुछ ऐसा लिखिए कि समाज के लोगों को कुछ फायदा हो. उनका जीवन सुधरे. उनका पानी रुके. उनका अकाल दूर हो. बाढ़ में चार गांव तैर जाएं. कुछ ऐसा लिख दो कि संकट में लोगों के लिए वह संबल की तरह काम आये. हो सकता है कि इसके लिए पैसा न मिले लेकिन बदले में और भी बहुत कुछ मिलेगा जो पैसे से ज्यादा कीमती होगा. लिखनेवाली जमात को यह समझना होगा.

सवाल- आपने अपने लिखे पर कभी कापीराईट नहीं रखा. क्या आपको जीवन में आर्थिक संकट नहीं उठाना पड़ा?
जवाब- प्राप्ति सिर्फ पैसे की ही नहीं होती है. मुझे पैसा नहीं मिला लेकिन बदले में समाज का इतना प्यार मिला है जिसके सामने पैसे का कोई मोल नहीं है. मैं एक सामाजिक संस्था (गांशी शांति प्रतिष्ठान) में काम करता हूं और कल्पना से भी बहुत कम मानदेय प्राप्त करता हूं. लेकिन मुझे जीवन में न कोई शिकायत है और न ही कोई संकट. मैंने पैंतीस साल पहले ही तय कर लिया था कि मुझे अपने लिखे पर कोई कापीराईट नहीं रखना है. और आज तक नहीं रखा और न आगे कभी होगा. कुछ अप्रिय प्रसंग जरूर आये लेकिन व्यापक तौर पर तो समाज का फायदा ही हुआ और बदले में मुझे उनका अथाह प्यार और सहयोग मिला. आप देखिए दुनिया में तो अब एक नया फैशन ही चल पड़ा है कापी लेफ्ट का. खुले समाज की नयी परिभाषाएं बन रही हैं तो फिर हम अपनी ओर से उस खुले समाज के गुल्लक में एक सिक्का क्यों नहीं डालते? अच्छी चीज को रोककर आखिर हम क्या करेंगे? अगर हम सब बातों में खुलापन चाहते हैं तो अपने ही लिखे पर प्रतिबंध क्यों लगाएं? वैसे भी अब टेक्नालाजी इसकी इजाजत नहीं देती है.

सवाल- क्या अधिकार का दावा छोड़ना ही एकमात्र रास्ता है?
जवाब- जी बिल्कुल. यही प्राकृतिक व्यवस्था है. क्या अनाज अपने ऊपर कापीराईट रखता है कि एक दाना बोएंगे तो सिर्फ एक दाना ही वापस मिलेगा? पेड़ पौधे अपने ऊपर कापीराईट रखते हैं? पानी अपने ऊपर कापीराईट रखता है? तो फिर विचार पर कापीराईट क्यों होना चाहिए? प्रकृति हमकों सिखाती है कि चीजें फैलाने के लिए बनायी गयी हैं.

सवाल- कापीराईट और लाभ की मानसिकता ने क्या चौथे खंभे पत्रकारिता के सामने भी संकट पैदा किया है?
जवाब- पहले तो इसे चौथा खंभा क्यों कहते हो? हमने एक काल्पनिक महल खड़ा कर लिया जिसके चार खभे बना लिये हैं. मुझे तो चारो खभों के बारे में शक है. ऐसे खंभे पर टिकाते जाएं तो फिर बारहखंभा में क्या दुर्गुण है? सड़क पर एक हवेली थी उसमें बारह खंभे थे इसलिए उसका नाम बारह खंभा हो गया. ये लोकतंत्र के सभी खंभे बालू की भीत में लगे हवा के खंभे हैं. चौथा खंभा भी खंभा नहीं बल्कि खोमचा है. आप देखिए अब खबरें बिक रही हैं तो आप इसे खंभा कहेंगे या फिर खोमचा? इस खोमचे में काम करनेवाले पत्रकार भी इस पतन के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने खोमचे के मालिक. पत्रकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते.

Courtesy by Sanjay Tiwari on behalf of www.visfot.com

Tuesday, April 13, 2010




दंतेवाड़ा में नक्सलियों से मुलाकात के चक्कर में प्रख्यात लेखिका अरूंधती राय नप सकती हैं। नक्सलियों को महिमामंडित करने की छत्तीसगढ़ के एक सामाजिक कार्यकर्ता की शिकायत पर उनके खिलाफ  डीजीपी विश्व रंजन  ने जांच के निर्देश दिए हैं।




(विस्तृत खबर पढ़ें)












साभार- नई दुनिया

Monday, April 12, 2010

सानिया के नाम खुला खत

प्रिय सानिया,
           आयशा प्रकरण के पटाक्षेप के बाद अब जबकि यह तय हो चुका है कि तुम्हारा निकाह शोएब के साथ होकर रहेगा, मेरे मन में तुम्हारे लिए गहरी सहानुभूति उमड़ आई है। अपने जमाने की मषहूर अभिनेत्री रीना राॅय और मुंबई की आशा पाटिल के बाद तुम शायद तीसरी सेलेब्रिटी दुल्हन बनोेगी, जिसकी ससुराल पाकिस्तान में होगी। हालांकि तुम इन सबके असफल वैवाहिक जीवन की बात सोचकर टेंशन बिल्कुल मत लेना। दूसरी बीबी के रूप में शोएब तुम्हारी अहमियत बखूबी समझेगा। वहीं शादी के बाद भी भारत की ओर से खेलने की बात कहकर तुमने सही मायने में साबित कर दिया है कि खेल के साथ ही पूंजी की समझ तुममें कहीं ज्यादा है।
              शादी के बाद दुबई में रहने का तुम्हारा फैसला भी एक तरह से समसामयिक और हमें राहत देने वाला है। अरे जब तुम्हारे तंग कपड़ों पर भारत में इतना बवाल मच सकता है तो पाकिस्तान में दो-चार फतवे तो जारी हो ही जाने थे। और फिर कुछ बागड़बिल्लों की ओर से देष की विभिन्न अदालतों में तुम्हारे खिलाफ दायर तिरंगे के अपमान के मामलों में भी अब तुम कुछ राहत की सांस ले सकोगी। तुम्हारे दुबई में रहने से हम सब भारतीय उस लानत-मलानत से भी बच सकेंगे, जो तुम्हारे भारत की बेटी के रूप में पाकिस्तान जाने से हमें झेलनी पड़ती। अब हमारे पास कहने को होगा कि सानिया की ससुराल दुबई ही है शत्रु देश पाकिस्तान में नहीं। वैसे भी कारगिल समेत तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लड़ाइयों में हमारे वीर सपूतों की जान लेने वाला पाकिस्तान तुम्हें कभी रास आता भी नहीं।
               हालांकि हिंदूवादी संगठनों को जो अपने नारों में पाकिस्तान को भारत का बेटा बताते रहे हैं, अब बदले हालातों मंें खुद को जस्टिफाई करने के लिए नए सिरे से नारों को गढ़ना होगा। वैसे भी तुम्हारी शादी की खबर नहीं पचा पा रहे करोड़ों भारतीयों के साथ ही बाल ठाकरे और कब्वे सादिक जैसे नेताओं की भी तुम परवाह मत करना। यह जिंदगी तुम्हारी है और तुम्हें इस अपने ढंग से जीने का अधिकार है। वहीं तुम्हारे इस फेसले से पाकिस्तान के बंजर टेनिस कोर्ट में सनसनी की उम्मीद करने वाली फिरकापरस्त ताकतों को भी तुमने माकूल जवाब दिया है। हो सकता है कि तुम अगर पाक में रहने का फैसला करतीं तो 1965 और 71 के युद्ध में बुरी तरह से मात खा चुके लोग इस मौके को 2010 की अपनी जीत के रूप में मनाते।
        सानिया, यकीन मानो सोहराब के बाद किसी भी भारतीय वर को न चुनने के तुम्हारे इस कठोर फैसले ने हमारे देश के लाखों मुसलिम युवाओं को तोड़कर रख दिया है। उन्हें डर है कि तुम्हारी तर्ज पर हर मुसलिम लड़की अपने सपनों का शहजादा पाकिस्तान या दुबई में ही ढूंढने लगी तो उनकी दिन दूनी रात चैगुनी रफतार से बढ़ रही जमात का क्या होगा।
         सानिया, अब जबकि तुम्हारे निकाह में ज्यादा समय नहीं है, हमारी इल्तजा है कि हो सके तो शोएब समेत तमाम पाकिस्तानियों से मेहर के रूप में इस मुल्क के लिए अमन और चैन मांग लेना। अंधे इश्क  के चलते बने कुछ घावों का इससे बेहतर मरहम शायद ही कोई हो।

खेल की ही तरह अपने वैवाहिक जीवन में भी लंबी पारी खेलो। इस कामना के साथ...

तुम्हारा शुभाकांक्षी

एक भारतीय नागरिक



Tuesday, April 6, 2010

अरुंधती को गृहमंत्री बना दिया जाए तो कैसा रहेगा !

(Arudhati Roy with a gang of Naxalites in Dantewada, Chattisgarh) photo source- Outlook India

हाल ही में आउटलुक मैग्जीन में नक्सलियों के बारे में कवर स्टोरी पढ़कर अरुंधती राय की दिलेरी का कायल हुए बगैर ना रह सका। छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के जंगलों में जिन नक्सलियों तक बीएसएफ, आईटीबीपी और सीआरपीएफ जैसे अर्द्धसैनिक बल या पुलिस के स्पेशल आॅपरेशन ग्रुप्स नहीं पहुंच पाए उन्हें इस खांटी वामपंथी ने खोज निकाला। यही नहीं अपनी आवभगत भी कराई। 'वाकिंग विद कामरेड' नाम के इस लेख को पढ़कर दिल सोचने को मजबूर हो गया कि अगर अरुंधती को हमारे देश का गृहमंत्री बना दिया जाए तो कैसा रहेगा। हर तरह के रोल निभाने वाली अरुंधती देश के आंतरिक और बाहरी संकटों से बखूबी निबट सकती हैं।           
           न जाने क्यों अरूंधती को देख सुनकर किसी कार्टून फिल्म का मुख्य पात्र याद आ जाता है जो तरह-तरह की भूमिकाओं में दर्षकों का मनोरंजन करता है। कभी प्रगतिषील लेखिका, कभी सामाजिक विचारक, कभी एक्टिविस्ट तो कभी कामरेड बनी अरुंधती की लगभग हर ज्वलंत मुद्दे में अड़ने वाली टांगों का मैं निजी तौर पर कायल हूं। जबकि सस्ती लोकप्रियता के लिए सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने वाली उनकी नीति का भी मैं पूरी तरह से गलत नहीं मानता।
             बात अरूंधती के उसी लेख से शुरू करते हैं जिसमें वह जीदारी के साथ बताती हैं कि उन्हें दिल्ली स्थित उनके निवास में एक चिट मिली, जिसमें उन्हें बाकायदा कोडवर्ड और कुछ खास साजोसामान के साथ दंतेवाड़ा आने का न्यौता दिया गया। कई दिनों के मुष्किल सफर के बीच अरुंधती ने अपने कामरेड साथियों से कई चरणों में बातचीत की। इस दौरान जंगलों में महज एक पाॅलीथिन पर रात बिताकर उन्होंने यह जता दिया कि वह सुख-सुविधाओं की मोहताज नहीं हैं। ऐसे में गृहमंत्री के रूप में मुष्किल से मुष्किल स्थिति का सामना कर सकने की उनकी क्षमता का पता चलता है।
          वैसे अरुंधती को यूपीए सरकार में किसी अन्य मंत्रालय जैसे सामाजिक न्याय, स्वास्थ्य, ग्रामीण पुनर्वास या कारपोरेट मामलों का प्रभार भी दिया जा सकता है लेकिन अपने लेख में उन्होंने जिस तरह से मौजूदा गृहमंत्री पी. चिदंबरम को आॅपरेशन ग्रीन हंट के लिए पानी पी-पीकर कोसा है, उससे तो यही लगता है कि इन्हें गृहमंत्री की कुर्सी से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। कथित गरीब नक्सली भाई-बहनों के लिए उनकी भावनाएं पढ.कर बाॅलीवुड का कोई निदेशक एक मार्मिक फिल्म बना सकता है, जिसके हिट होने की भी पूरी गारंटी है। वहीं सलवा जुडूम पर सवालिया निषान के बाद सरकार की भी भलाई इसी में है कि उन्हें बंद कर दे, नहीं तो क्या पता 'गुरूजी' की यह शिष्या कल को अपनी मांगों के समर्थन में असत्याग्रह शुरू कर दे।

अरुंधती राय का पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें-
http://www.outlookindia.com/article.aspx?264738

Wednesday, March 31, 2010

FINDING A PLACE OF FREEDOM

In my long journey of life in this very short period of time reaching almost different parts of India and now standing here at Tuticorin just near to Knayakumari (Tamilnadu), the southern most part of India as my place of posting under Govt of India. But as I was born in Manipur as Manipuri with the race of Mongoloid on the extreme North Eastern States of India.

        When I tried to find a place for we mongoloid or peoples of this region; a region of rich diverse flora and fauna which can be use for a bigger prospect in future biological scientific development, a region rich in environment friendly system of existence, so a model region for creating a new environment regarding this solution of global warming, a region rich in full of Arts and culture and which can be a source of making a change in the mindset of the peoples at there, a region rich in natural beauty with human’s best hospitality and can be a source of widening aspect of Tourism, a region rich in sportsmanship and can be a source of bringing friendship and brotherhood among the peoples; on the Indian mainland and Indian Map where we used to get different peoples from U.P., Bihar, Rajasthani, kashmiri, Tamil, Telegu, Kannada, Marathi and so on with their rich resource and getting a nice place and share on India’s Political and Socio-Economic Diversity.

           Except we are known or called as (by North Indians) Nepali Bhai or Chinki-pinki or something some thing and a little bit a better on this southern side of India where there is nothing like separation among the race. I don’t know what is the criteria for setting up a highest railway line like in Laddhakh in Kashmir valley instead in states like Manipur where there is no rail connectivity. I don’t know what is the criteria for setting up any of the best research centre for science and technology like we have in different parts of India instead in this part also.

      I don’t know what is the criteria for setting up or improving the condition of already existed institutions and organization in a wider prospect to have better connectivity. Here comes the subject of political science which rules the nation, masses and peoples; so whether we need to redefine the very definition of this vast and very important term “Political Science” to this group of representatives of the masses or we need to wait to die.

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Written by A.D. Singh (Inspector Central Customs & Excise)




Monday, March 29, 2010

DIE DYNAMIC..

"The twenty-first century is the century of high transience and to survive this transience, one must learn to do more things in comparatively shorter durations and to change relatively faster. The rule is to categorically believe that everything (what you see, feel, touch, experience, enjoy and think) is temporary and what is constant is ‘change’. If you won’t change with the changing time, you’ll be stagnated and remember, stagnation is ‘death’. You have to keep changing steadily amongst the turbulent waters of transient life. However, pragmatically and theoretically, change is always accompanied with resistance (psychological, social, political, cultural, economic and emotional). So, keeping pace with the change, one must learn to integrate, unite, affiliate and attach quickly with new places, people, things, situations and ideas, and more to learn is to be even quicker to dis-integrate, dis-unite, dis-affiliate, and de-attach for still newer places, people, things, situations and ideas. And today, all this process is occurring at a breath-breaking speed.

         So, if you won’t change, you’ll die stagnated. If you resist change and linger to the ‘olds’, you’ll die frustrated. If you flow with the change, you’ll die normal. If you go one step ahead and bring in even more change, you’ll die dynamic."

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Courtesy by Abhay S. D. Rajput
Further, I reccommend to read Alvin Toffler's book "The Future Shock"

Saturday, March 27, 2010

मंदिर जाएं तो नारियल फोड़कर ही आएं..

छत्तीसगढ़ की वैष्णोदवी कही जाने वालीं मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए नवरात्र में डोगरगढ़ जाना हुआ। तीन ब्रेक में करीब नौ सौ सीढ़ियां पहाड़ी पर चढ़ने के बाद मुख्य मंदिर पहुंच सका। राजा विक्रमादित्य के समय बना यह मंदिर वाकई खूबसूरत है। इसकी छत पर कांच की नक्काशी और सजावट तो बस देखते ही बनती है। ज्यादातर चीजें बिल्कुल उत्तर भारत के मंदिरों जैसी थीं सिवाय एक बात के, जिसने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। दरअसल वहां प्रसाद में नारियल बिना किसी चढ़ावे की अनिवार्य शर्त के मिल रहा था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यहां प्रसाद की री-साइक्लिंग की संभावनाएं बहुत कम थीं या न के बराबर थीं। चैंकिए मत आगरा, मथुरा समेत कई मंदिरों में प्रसाद की री-साइक्लिंग बिल्कुल आम बात है। दरअसल यहां चढ़ने वाले नारियल समेत अन्य प्रसाद सामिग्री को मंदिर ट्रस्ट के स्तर से दोबारा से उन्हीं दुकानदारों को बेच दिया जाता है, जिनसे वह खरीदी गई होती है।

       बात आगरा से करीब 12 दूर ग्वालियर रोड पर स्थित इटौरा की केलादेवी से शुरू करते हैं। इस ऐतिहासिक मंदिर में हर साल नवरात्र पर भव्य और दिव्य मेला लगता है। लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। मंदिर के छह सौ मीटर दूर से ही प्रसाद बिक्री की दुकानें शुरू हो जाती हैं, जहां नारियल और अन्य सामग्री मां के दरबार में चढ़ाने को मिलती हैं। चूंकि अपनी ननिहाल इसी गांव में है, सो बचपन से देखता आ रहा हूं कि श्रद्धालु जो नारियल देवी को अर्पित करते हैं। वह प्रसाद में मिलने के बजाए भंडार गृह में पहुंच जाते हैं और फिर यहां से बोरों में भरकर वापस दुकानदारों पर। कमोबेश ऐसे ही हालात मथुरा-दिल्ली मार्ग पर छाता के समीप हमारी कुलदेवी नरीसेमरी के प्राचीन मंदिर के रहते हैं। पिछले वर्ष यहां के पुजारी से जब मैंने प्रसाद में नारियल मांगा तो उसने दान पेटी का रास्ता दिखा दिया। आगरा में रूनकता के शनिदेव मंदिर में चढ़ाए जाने वाला सरसों का तेल और काले तिल भी री-साइक्लिंग के इस खेल से अछूते नहीं हैं।

        इस्काॅन समेत कुछ अन्य मंदिरों को छोड़ दें तो मथुरा-वृंदावन के ज्यादातर मंदिरों के ठेकेदार इससे भी एक कदम आगे बढ़ चुके हैं। यहां श्रद्धालु के प्रभाव को देखकर प्रसाद दिया जाता है। ज्यादा दान देने ंपर बांकेबिहारी की माला भी प्रसाद के रूप में गले में डाल दी जाती है। वहीं अगर किसी सुदामा टाइप भक्त ने प्रसाद मांग लिया तो पंडा लोग खींसे निपोरने लगते हैं। उधर, गुवाहाटी के कामाख्या शक्तिपीठ के पुजारी इन मंदिरों से एक कदम नहीं बल्कि एक सौ किमी आगे चले गए हैं। वर्ष 1999 की अपनी यात्रा के दौरान मैंने यहां देखा कि यहां बाकायदा बोली लगाकर देवी के दर्शन कराए जाते हैं। जो जितना अधिक धन देगा वह उतने ही सुगम तरीके से और नजदीक से दर्शन करेगा। कई बार तो ज्यादा धन देने पर प्रसाद के रूप में देवी की कथित रज का लाल कपड़ा भी मोटे पेट वाले श्रद्धालुओं को थमा दिया जाता है। जबकि गरीब आदमी घंटों लाइन में लगने के लिए छोड़ दिया जाता है, जैसे उसके समय की तो कोई कीमत ही न हो। यूं तो इन सभी मंदिरों के कर्ता-धर्ता अलग-अलग हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का इनका पोंगापंथी जरिया इन्हें एक ही जमात में ला खड़ा करता है। वहीं दूसरी ओर डोगरगढ़ का यह देवी मंदिर अपनी रवायत के चलते श्रद्धालुओं को एक सुखद अहसास कराता है।

          इस सबके बीच मंदिरों में नारियल चढ़ाने की बात न हो तो शायद यह बात अधूरी ही रह जाए। आमतौर पर श्रद्धालु नारियल समेत पूरी थाली को पुजारी को अर्पित कर देते हैं। वहीं कुछ लोग नारियल को मंदिर में ऐसे फेंकते हैं, जैसे भगवान पर ईंट फेंक रहे हों। दरअसल उनकी मंशा अपने नारियल के भगवान के अधिक से अधिक नजदीक पहुंचाने की रहती हैं। ऐसे में नारियलों के इस हमले से आजिज होकर कई मंदिरों में नारियल न फेंकने की अपील भी चस्पा कर दी गई है। इस सबके बीच कुछ समझदार भक्त मंदिर की चैखट पर नारियल फोड़ने में यकीन करते हैं और शायद यह वहीं लोग होंगे जो भगवान के घरों के इस बाजारीकरण के खिलाफ खड़े हैं और ऐसे में अगली बार जब भी मंदिर में नारियल चढ़ाएं तो उसे फोड़कर ही वापस आएं। शायद यही सही तरीका भी है प्रसाद की इस री-साइक्लिंग को रोकने का।

Wednesday, March 24, 2010

Love your Job

You'll never achieve real success unless you like what you're doing.
Your chances for success will be directly proportional to the degree of pleasure you derive from what you do. If you have a job you hate, face the fact squarely and get out.
Work is reward, not punishment.
If you enjoy what you do, you'll be successful. If you don't enjoy what you do, you won't be successful.
Your success in any occupation depends on your enjoyment. Loving your work will make all the difference.
Success in its highest and noblest form calls for peace of mind, enjoyment,and happiness. This comes only when you find the work that you like best.
You don't pay the price for success. You enjoy the price of success.
Choose a job you love, and you will never have to work a single day in your life!!

Tuesday, March 23, 2010

शिवराज के साथ ख़त्म हुई छात्र राजनीति की हनक

परसों सुबह जब अमित यादव जी का एमएमएस आया तो एक पल को विश्वास नहीं हुआ कि शिवराज चौधरी  का मर्डर हो गया। वहीं दूसरे पल इस खबर को मानना लाजिमी हो चला था। आखिर उसने जो रास्ता चुना, वह ऐसे ही किसी मंजर पर जाकर खत्म होता है। देर शाम तक इस खबर के बारे में आगरा से साथी पत्रकारों और मित्रों के फोन और एसएमएस आते रहे। कुछेक ने ई-मेल के जरिए भी सूचना दी। इस दुखद घटना की तस्वीरें देखीं तो देर तक शिवराज के बारे में जेहन में विचार कौंधते रहे।

      वर्ष 2003 में खंदारी कैंपस के दाउदयाल इंस्टीट्यूट में रंगबाजी के विरोध में चर्चा से आए शिवराज ने 2004 में यूनिवर्सिटी कैंपस से छात्रसंघ चुनाव जीत सबको चैंकाया था। बड़े-बड़े छात्र संगठनों की रणनीतिक तलवारें भी उस 'समर' में भोंथरी साबित हुई थीं। उसकी जीत की सबसे बड़ी वजह उसका आम छात्रों में से एक होना माना गया न कि नेता, लेकिन बाद में देहाती पृष्ठभूमि के इस साधारण छात्र पर ढाबे पर उत्पात मचाने, कैंपस में फायरिंग और रंगबाजी समेत तमाम आरोप लगे।
      मुझे याद है कि छात्रों की जायज मांगों के लिए कभी भी वह पीछे नहीं हटा। यहां तक कि बीफार्मा छात्रों के आंदोलन के दौरान विपरीत विचारधारा का होने के बावजूद उसने हमारे साथ धरने पर बैठने में गुरेज नहीं किया। यह छात्रों की बेबसी से उपजा गुस्सा था या व्यवस्था के प्रति आक्रोश, कह नहीं सकता लेकिन कुलपति या किसी अन्य अधिकारी से वार्ता के दौरान गरम हो जाना उसके लिए आम हो गया था। खैर शिवराज ने 'अलग राह' क्यों पकड़ी, उसके बारे में भी अलग-अलग मत हैं। कोई कहता है कि पुलिस के एक बर्खास्त दरोगा ने उसे जरायम की दुनिया दिखाई। वहीं कुछ लोग पैसे की लिए उसकी बढ़ती लालसा और जमीन के धंधे को इसकी वजह बताते हैं।
       बात चाहे जो हो वह वैसा बिल्कुल नहीं था, जैसी उसकी छवि बन गई। एक बार उसके रूम पर जाना हुआ। वहां आजकल के लड़कों के कमरों की तरह दीवारों पर एक भी पोस्टर फिल्मी हीरोइनों का नहीं था। दिखी तो सिर्फ सादगी। बड़े भाई की तरह मुझे हमेशा सम्मान दिया। जब भी मिला आत्मीयता से मिला, और मुझसे ही क्यों शायद हर किसी के साथ उसका व्यवहार ऐसा ही था। छात्रों के हक़ और हुकूक की लड़ाई उसने कभी नहीं ख़त्म की, समाजवादी पार्टी छोड़ अपना खुद का छात्र संगठन बनाने के बाद भी ये क्रम बना रहा।

        मुझे याद नहीं आता कि छात्रसंघ की छात्रा पदाधिकारियों समेत कैंपस की किसी अन्य लड़की से उसने छेड़छाड़ तो दूर बदतमीजी भी की हो। वह स्त्रियों का सम्मान करने वाला था और अपने स्याह जीवन में प्रेम विवाह कर उसने यह बात साबित भी की। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी हमेशा की तरह ब्रांडेड कपड़ों में था। नवविवाहिता अंजना के लिए 40 गज जमीनी रंजिश में घटी यह घटना और उसके पति का क्षत-विक्षत शव दुखों के किसी पहाड़ जैसा था।
      बहरहाल, छात्रसंध अध्यक्ष के रूप में लगभग पांच दशक बाद शिवराज चौधरी की हनक ने आगरा विश्वविद्यालय के कतिपय बाबुओं को जो छात्रों के शोषण के लिए जाने जाते थे, अपनी कार्यशैली बदलने पर मजबूर कर दिया। अरसे बाद आगरा में बनी छात्र राजनीति की यह हनक शायद अब शिवराज के साथ ही खत्म हो गई। आने वाली पीढ़ियों में छात्रसंघ अध्यक्ष तो और भी बनेंगे लेकिन शिवराज चौधरी और नहीं हो सकते।

Sunday, March 21, 2010

किताब मेरी दोस्त, मेरी हमसफर

आधी सदी से अधिक का वक्त
मैंने बिताया किताबों के संग
किताब मेरी दोस्त,मेरी हमसफर,
किताबों के सहारे
मैंने देखे सपने
सपने बन गए मकसद
किताबों के सहारे बढ़ा हौंसला
मकसद पूरा करने का,
असफलता के वक्त
किताबों ने बढ़ायी मेरी हिम्मत
किताबें मेरी दोस्त, मेरी हमसफर,
अच्छी किताबें देवदूत बन मेरे लिए पैगाम
मेरे दिल को हौले से सहलाया,
इसलिए मैं अपने युवा साथयों से
कहता हूँ - किताबों से दोस्ती करो
ये हैं तुम्हारी अच्छी दोस्त, हमसफर
किताब मेरी दोस्त, मेरी हमसफर !
- डाॅ एपीजे अब्दुल कलाम

Saturday, March 20, 2010

जिंदगी का मतलब जीना है तमाशगीरी नहीं!

जिंदगी का मतलब जीना है तमाशगीरी नहीं। कहीं चलते-फिरते यह लाइन पढ़ी तो सोचने पर मजबूर हो गया कि लेखक आखिर साबित क्या करना चाहता है। भला तमाशगीरी के बिना भी कोई जीना हुआ। हो सकता है बैलगाड़ियों के दौर में यह बात वाजिब रही हो लेकिन फार्मूला कार के जमाने में तो फिजूल ही करार दी जाएगी। ब्रांडेड कपड़ों और जूतों पर टीका-टिप्पणी करने वाले लोग अब बचे कहां हैं। वहीं पांत में बैठकर जीमने वाले भी धीरे-धीरे निपट गए। बचे-खुचे लोगों को आउट डेटेड का तमगा मिल चुका है। ऐसे में अब कोई शोषेबाजी करना भी चाहे तो भला ऐतराज क्यों और किसे होना चाहिए, और फिर हम क्यों भूल सकते हैं कि मीडिया के अनुसार जो दिखता है, वही बिकता है। हम तो आधुनिक हैं, कहकर जी भरकर खुद को उघाड़ें भी तो कौन रोक लेगा। कालेज-कैंपसों में देश और समाज की समस्याओं के बारे में सोचने से ज्यादा आज के दौर में मोटे पैकेज पर नौकरी मिलना जरूरी हो चुका है। बौद्धिक नेतृत्व के नाम पर खुद का काम या कुछ और करने से बेहतर है किसी बनिए की नौकरी कर पूरी जिंदगी गुजार दी जाए। ड्रिंक और डिस्को वाला मजा भला भगवान भजन में तो आने से रहा। चूंकि सफलता भी अभिनय से ही आती है, इसलिए जो जितना बड़ा अभिनेता, वह उतना ही सफल। जीवन रूपी रंगमंच पर एक के बाद एक नाटक रचे जाना ही शायद बेहतर हो। आखिरकार जिंदगी भर अंग्रेजों को गरियाने वालों को जब भाषा के रूप में अंग्रेजीयत अपनाने में गुरेज नहीं हुआ तो भला हम को क्यों होगा। हम अंग्रेजों को कोसेंगे भी और अंग्रेजीयत का चोगा भी पहने रहेंगे क्योंकि हमें इस तमाशा में खुद को अव्वल जो साबित करना है।

Friday, March 19, 2010

शिक्षक के नाम एक ऐतिहासिक पत्र

हे शिक्षक! उसे यह सीखना है कि सभी लोग न्यायप्रिय नहीं होते सभी लोग सच्चे नहीं होते किंतु उसे यह भी सिखाएं कि जहाँ एक बदमाश होता है वहां एक नायक भी होता है यह कि हर स्वार्थी नेता के जवाब में एक समर्पित नेता भी होता है उसे बताइए कि जहाँ एक दुश्मन होता है वहां एक दोस्त भी होता है अगर आप कर सकते हैं तो उसे ईष्र्या से बाहर निकालें उसे खामोश हंसी का रहस्य बताएं उसे जल्दी यह सीखने दें कि गुंडई करने वाले बहुत जल्दी चरण स्पर्श करते हैं अगर पढ़ा सकें तो उसे किताबों के आश्चर्य के बारे में पढाएं लेकिन उसे इतना समय भी दें कि वह आसमान में उड़ती चिडिया के धूप में उड़ती मधुमक्खियों के और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के शाश्वत रहस्यों के बारे में सोच सकें उसे स्कूल में यह भी सिखाएं कि नकल करने से ज्यादा सम्मानजनक फेल हो जाना है उसे अपने विचारों में विश्वास करना सिखाएं तब भी जब सब उसे गलत बताएं उसे विनम्र लोगों से विनम्र रहना और कठोर व्यक्ति से कठोर व्यवहार करना सिखाएं मेरे बेटे को ऐसी ताकत दें कि वह उस भीड़ का हिस्सा न बने जहाँ हर कोई खेमे में शामिल होने में लगा है उसे सिखाएं कि वह सब की सुने लेकिन उसे यह भी बताएं कि वह जो कुछ भी सुने उसे सच्चाई की छलनी पर छाने और उसके बाद जो अच्छी चीज बचे उसे ही ग्रहण करे अगर आप सिखा सकतें हैं तो उसे सिखाएं कि जब वह दुखी हो तो कैसे हंसे उसे सिखाएं कि आंसू आना शर्म की बात नहीं उसे सिखाएं कि निंदकों का कैसे मजाक उडाया जाए और ज्यादा मिठास से कैसे सावधान रहा जाए उसे सिखाएं कि अपनी बल और बुद्धि को उचें से उचें दम पर बेचें लेकिन अपनी ह्रदय और आत्मा को किसी कीमत पर न बेचें उसे सिखाएं कि एक चीखती भीड़ के आगे अपने कान बंद कर ले और अगर वह अपने को सही समझता है तो उठ कर लड़े उससे विनम्रता से पेश आएं पर छाती से न लगाए रखें क्योंकि आग में ही तप कर लोहा मजबूत बनता है उसमे साहस आने दें उसे अधीर बनने दें उसमे बहादुर बनने का धैर्य आने दें उसे सिखाएं कि वह अपने में गहरा विश्वास रखे क्योंकि तभी वह मानव जाति में गहरा विश्वास रखेगा यह एक बड़ी फरमाइश है पर देखिये आप क्या कर सकतें हैंक्योंकि यह छोटा बच्चा मेरा बेटा है ! -- अब्राहम लिंकन