Monday, April 26, 2010

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो....

सवाल यह नहीं कि मसला हल कौन करे, सवाल तो यह है कि पहल कौन करे। नासूर बन चुकी नक्सली समस्या पर कुछ ऐसा ही हाल है हमारे देश के नेताओं का। दंतेवाड़ा की घटना के बाद भी जितनी ढपली उतने राग की तर्ज पर हर कोई अपनी-अपनी कह रहा है। कोई भी एक दूसरे की बात सुनने को तैयार नहीं। कांग्रेसी घटना के लिए मुख्यमंत्री डाॅ रमन सिंह से इस्तीफा देने की मांग कर रहे हैं तो उनके नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपनी ही सरकार के गृहमंत्री चिदंबरम की कार्यशैली पर अंगुली उठा रहे हैं। वहीं बीजेपी भी जडें खोद-खोदकर समस्या के लिए पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को कठघरे में खड़ा कर रही है। नक्सल प्रभावित इलाके में कांग्रेस पार्टी के शासनकाल में उसके नेताओं के दौरों की जानकारी निकलवाई जा रही है।

           बहरहाल नेताओं में नक्सली समस्या जैसे संवेदनशील मुद्दे को हल करने पर भी आम सहमति अभी तक नहीं बन सकी है। अब जबकि गृह मंत्रालय को नक्सलियों से हिंसा छोड़ने का आग्रह बाकायदा अखबार में विज्ञापन देकर किया जा रहा है, इन नेताओं को धिक्कारने का मन करता है। महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष के इस देश में क्या एक भी ऐसा नेता नहीं बचा जो जनता को मोबिलाइज कर सके।

         मौजूदा दौर में जबकि हर नेता खुद के गरीबपरस्त होने की बात कहता है, किसी ने भी नक्सली समस्या के समाधान को जमीनी पहल नहीं की। माओवादियों के समर्थक हों या विरोधी, किसी ने भी ताड़मेटला या दंतेवाड़ा का रुख करना उचित नहीं समझा। अरे भाई! अगर माओवादियों के समर्थक हो तो जंगल के भटके लोगों से घबराना कैसा और विरोधी हो तो गुमराह हुए लोगों को समझाने में भला क्या अड़चन। दूर के नहीं तो कम से कम पास के ऐसे नेता तो गुमराह लोगों के पास जा ही सकते हैं जिन्होंने नक्सली हिंसा को नजदीकी से देखा हो। कमोबेश हर राजनीतिक दल के पास ऐसे नेताओं की अच्छी खासी संख्या है।

            हमें यह समझना होगा कि एअर कंडीशंड कमरों में बैठकर नक्सली समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आज के दौर में नक्सली वास्तव में हताशा के चलते भटके हुए लोग हैं, जिनके बल पर माओवादी जीत बोलते हैं। अगर ऐसे लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाया जाए तो कोई सूरत नहीं कि नक्सली समस्या जड़ से मिट जाएगी। जमीनी नेताओं की एक ईमानदारी कोशिश की देर भर है, माओवादियों की चूलें हिल जाएंगी और ऐसे नेताओं के लिए यह मौका भी होगा खुद को जन, जंगल, जमीन और जानवर का सच्चा हितैषी साबित करने का।

जवानों को कैनन फोडर तो न बनाएं!

बीते दिनों छत्तीसगढ से आगरा आते हुए ट्रेन में कुछ सीआरपीएफ के जवानों से बातचीत हुई तो नक्सली हिंसा के खौफनाक सच से वाकिफ हुआ। लगा कि कारगिल के युद्ध से ज्यादा खतरनाक तो जंगल की लड़ाई है। कारगिल में उंची चोटियों पर बैठे दुश्मन के बारे में जानकारी तो थी लेकिन नक्सल प्रभावित जंगल में किस पेड़ से या पत्तों के झुरमुट से जहरीला तीर गर्दन मेें आ लगे, कोई तो नहीं जानता। कारगिल में कुछ पता हो या न हो लेकिन गोली की दिशा  जरूर पता थी लेकिन जंगल में तो उसका भी पता नहीं। जाने किस ओर से गोली आ धंसे, कोई नहीं जानता।
बातचीत का लव्वोलुआब यह कि जंगल की लड़ाई का कोई स्टैंडर्ड आॅपरेटिंग प्रोसीजर नहीं होता। नियम भी सख्त होते हैं। जंगल में संभावित दुश्मन पर पहला फायर जवान अपनी ओर से नहीं कर सकते। क्या पता गोली किसी बेकसूर को लग जाए। दुश्मन सिर्फ वही माना जाएगा, जिसके पास हथियार हों या जो हमला करे। 40-45 किमी की पैट्रोलिंग और फिर जंगल की कठिन परिस्थितियां। ऐसे में कोई चूक हो भी जाए तो मानवाधिकार संगठनों और मुकदमों का डर। चाहकर भी दुश्मन को आगे बढ़कर नहीं दबोच पाते। शायद पीछे रहकर खतरा उठाना ही उनकी नियति बन चुका है। यात्रा के दौरान एक जवान ने कहा था कि हमें ऐसी लड़ाई में झोंका ज्यादा जाता है, जिसमें शहादत की संभावनाएं ज्यादा होती हैं और जीतने की कम। यह वाकया ताड़मेटला की घटना से पहले का है। अब सोचता हूं कि सीआरपीएफ के जवान गलत नहीं थे। बिना समुचित प्रशिक्षण के जंगल की अबूझ परिस्थितियों में जवानों को झोंककर कहीं कैनन फोडर तो नहीं बनाया जा रहा। अगर ताड़मेटला की घटना का सच भी ऐसा ही भयावह है तो यह हमारी चैन की नंीद के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले सुरक्षाबलों के मनोबल को तोड़ने वाली नीति है, जो भविष्य में हमारे लिए अधिक दुखदायी साबित होगी।

आदिवासी और अनादिवासी के बीच का फर्क

आदिवासियों के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले लोग यह नहीं जानते कि उन्हें आदिवासी कहकर वह पश्चिम की उस धारणा को और मजबूत करते हैं, जिसमें माना जाता है कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, वह बाहर से आए थे और यहां आकर बस गए। अनजाने में वह उन्हें आदिवासी कहकर खुद को अनादिवासी मान लेते हैं। वास्तव में कोई कहां से आया यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि किसी के दिल में यह देश कहां बसता है और वह अपने लोगोें के हित में कैसा और कितना सोचता है यह महत्वपूर्ण है। भलमनसाहत की इसी नीयत पर जब सवाल उठते हैं तो शायद कहीं न कहीं सलवा जुडूम जैसी उन कोशिशों को धक्का लगता है, जो आदिवासी और अनादिवासी के बीच के इस फर्क को कम करने के लिए लगातार जारी हैं।

Wednesday, April 21, 2010

शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं..


पानी और पर्यावरण पर काम के लिए जाने जाते हैं अनुपम मिश्र. अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' के साथ उन्होंने एक दूरगामी दृष्टि वाला प्रयोग किया. उन्होंने अपनी किताब पर किसी तरह का कापीराइट नहीं रखा. इस किताब की अब तक एक लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं! यहां प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-


सवाल- कापीराईट को लेकर आपका नजरिया यह क्यों है कि हमें अपने ही लिखे पर अपना दावा (कापीराईट) नहीं करना चाहिए?
जवाब- कापीराईट क्या है इसके बारे में मैं बहुत जानता नहीं हूं. लेकिन मेरे मन में जो सवाल आये और उन सवालों के जवाब में मैंने जो जवाब तलाशे उसमें मैंने पाया कि आपका लिखा सिर्फ आपका नहीं है. आप एक जीवन में समाज के किस हिस्से कब और कितना सीखते, ग्रहण करते हैं इसकी कोई लाईन खींचना कठिन काम है. पहला सवाल तो यही है कि मेरे दिमाग में जो है वह क्या केवल मेरा ही है? अगर आप यह मानते हैं कि आपका लिखा सिर्फ आपका है तो फिर आपको बहुत कुछ नकारना होगा. अपने आपको एक ऐसी ईकाई साबित करना होगा जिसका किसी से कोई व्यवहार नहीं है. न कुल परिवार से न समाज से. क्योंकि हम कुल, परिवार, समाज में बड़े होते हुए ही बहुत कुछ सीखते हैं और उसी से हमारी समझ बनती है. अगर आप कापीराईट का इतिहास देखें तो पायेंगे कि हमारे समाज में कभी कापीराईट की कोई प्रवृत्ति नहीं थी. अपने यहां कठिनत श्रम से प्राप्त की गयी सिद्धि को भी सिर्फ सेवा के निमित्त उपयोग की जाती है. मीरा, तुलसी, सूरदास नानक ने जो कुछ बोला, लिखा वह सब हाथ से कापियां लिखी गयीं. तमिलनाडु में ऐसे हजारों ग्रंथ हैं जो हाथ से लिखे गये और हाथ से लिखे ग्रंथ भी दो-ढाई हजार साल अनवत शुद्धत्तम स्वरूप में जिंदा रहे हैं. इसलिए यह कहना कि कापीराईट से मूल सामग्री से छेड़छाड़ होनी बच जाती है ऐसा नहीं है. िजनका जिक्र मैं कर रहा हूं वे सब बिना कापीराईट के भी शुद्धतम स्वरूप में लंबे समय तक बची रही हैं और आज भी विद्यमान हैं. उनको तो किसी कापीराईट एक्ट की जरूरत महसूस नहीं हुई फिर आपको क्यों होती है?
        कॉपीराईट का नियम अंग्रेजों के साथ भारत में आया लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि किसी के मन में कभी यह सवाल और संदेह नहीं उठा कि आखिर हम कापीराईट का इस्तेमाल क्यों करें? महात्मा गांधी तक ने अपनी कापीराईट एक ट्रस्ट नवजीवन ट्रस्ट को पचास साल के लिए दे दिया था. अब पचास साल बाद गांधी के लिखे पर फिर कापीराईट हट गया है. तो फिर महज पचास साल के लिए इसका पालन करने से गांधी विचार भी नहीं बच सका. यह सब देखकर आश्चर्य होता ही है.

सवाल- लेकिन आज के इस व्यावसायिक युग में किसी का लिखा उसका व्यवसाय भी हो सकता है जिससे उसके जिंदगी की गाड़ी चलती है. वो भला अपना लिखा समाज को अर्पित कर दे तो अपना गुजारा कैसे करेगा?
जवाब- जिस दिन हम केवल कमाने के लिए लिखने लगेंगे उस दिन हमारे लिखने की गुणवत्ता भी गिर जाएगी. लिखना केवल पैसे के लिए नहीं होना चाहिए. कुछ लोग पैसे के लिए काम करते हैं तो भी उनको ध्यान रखना चाहिए कि वे जो लिखना चाहते हैं वह लिखें न कि पैसे देकर उनसे कोई कुछ लिखवाता है तो केवल वही न करते रहें. समाजऋण भी कुछ होता है जिसको चुकाने की नैतिक जिम्मेदारी महसूस होनी चाहिए. अगर आप सिर्फ पैसे के लिए लिखेंगे तो कभी वह नहीं लिख पायेंगे जो आप लिखना चाहते थे. आप बाजार में अपना लिखा एक तराजू पर लेकर खड़े हो जाएं और अशर्फियों में बोली लगाना शुरू करेंगे तो मुश्किल होगी. फिर जो अशर्फी देगा वह आपके लिखे को ले जाएगा. असल में कापीराईट का व्यवसाय यह अशर्फी देनेवाला समाज पैदा करता है. क्योंकि उसको आपके लिखे से मुनाफा कमाना है. इसलिए लिखनेवालों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर वे किसके लिए लिख रहे हैं? एक बात जान लीजिए, अशर्फी लेकर लिखनेवाले लोग अस्तित्व में लंबे समय तक उपलब्ध नहीं रह पाते हैं. एक समय के प्रवाह में आते हैं और अशर्फी में तुलकर समाप्त हो जाते हैं. मुंबई फिल्म उद्योग में कम पैसा है? लेकिन जरा देखिए, कल के स्टार आज किस गर्त में पड़े हैं? यही आज के स्टारों के साथ कल होगा. यही बात लेखकों पर भी लागू होती है. अच्छे लिखनेवालों की कीमत बाजार में नहीं समाज में निर्धारित होनी चाहिए.
         जहां तक आजीविका चलाने की बात है तो इसमें व्यावहारिक दिक्कत कम और मानसिक संकट ज्यादा है. अगर हम बुद्धि के श्रम के साथ थोड़ा शरीर का श्रम भी जोड़ दें तो दिक्कत नहीं होगी. आखिर क्यों हम केवल बुद्धि के श्रम की कमाई ही खाना चाहते हैं? यह तो विकार है. सड़क पर कूदने से अच्छा है कि थोड़ी देर खेत में कूद लो. थोड़ा श्रम करके पूंजी अर्जित कर लो. केवल अपने लिखे का मत खाओ. तब शायद ज्यादा अच्छा लिख सकोगे. ऐसा जीवन मत जियो जो केवल लिखने पर टिका हो.

सवाल- टेक्नॉलाजी के इस युग में कापीराईट कितना प्रासंगिक रह गया है?
जवाब- टेक्नालाजी और कापीराईट दो विरोधाभासी तत्व हैं. जब टेपरिकार्डर आया तो वह सूटकेस के आकार में था. आप किसी जगह भाषण देते थे तो वह रिकार्ड होना शुरू हो गया. इसके बाद टेपरिकार्डर का आकार छोटा होता गया और आज हम मोबाइल में ही सब कुछ रिकार्ड कर सकते हैं. अब सोचिए किसी के भाषण पर कापीराईट का अब क्या मतलब? मेरे बोले को कौन कैसे रिकार्ड करके कहां पहुंचा देगा, मैं भला कैसे जान पाऊंगा? जैसे टेपरिकार्डर ने एक तरह के कापीराईट को खत्म किया उसी तरह फोटोकापी मशीन ने लिखे के कापीराईट को अप्रासंगिक बना दिया. अब कम्प्यूटर ने तो सारी हदें तोड़ दी हैं. पहले तो हाथ से मजदूरी करके कापी करना होता था लेकिन टेक्नालाजी ने शेयरिंग का सब काम आसान कर दिया है. फिर क्यों झंझट मोल लेते हो? संभवत: टेक्नालाजी हमें बता रही है कि देखो राजा! शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं. इसलिए इसका आग्रह छोड़ दो. जो संभव नहीं, उसका आग्रह रखने की क्या जरूरत है?

सवाल- आपने कहा कि केवल अपने िलखे का मत खाओ. क्या इसको आप थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?
जवाब- ऐसा कहने का मेरा आशय है कि इतना अच्छा लिखो कि तुम्हारे लिखे का कोई और भी खाये. मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आपके लिखे का सिर्फ प्रकाशक खाये. कुछ ऐसा लिखिए कि समाज के लोगों को कुछ फायदा हो. उनका जीवन सुधरे. उनका पानी रुके. उनका अकाल दूर हो. बाढ़ में चार गांव तैर जाएं. कुछ ऐसा लिख दो कि संकट में लोगों के लिए वह संबल की तरह काम आये. हो सकता है कि इसके लिए पैसा न मिले लेकिन बदले में और भी बहुत कुछ मिलेगा जो पैसे से ज्यादा कीमती होगा. लिखनेवाली जमात को यह समझना होगा.

सवाल- आपने अपने लिखे पर कभी कापीराईट नहीं रखा. क्या आपको जीवन में आर्थिक संकट नहीं उठाना पड़ा?
जवाब- प्राप्ति सिर्फ पैसे की ही नहीं होती है. मुझे पैसा नहीं मिला लेकिन बदले में समाज का इतना प्यार मिला है जिसके सामने पैसे का कोई मोल नहीं है. मैं एक सामाजिक संस्था (गांशी शांति प्रतिष्ठान) में काम करता हूं और कल्पना से भी बहुत कम मानदेय प्राप्त करता हूं. लेकिन मुझे जीवन में न कोई शिकायत है और न ही कोई संकट. मैंने पैंतीस साल पहले ही तय कर लिया था कि मुझे अपने लिखे पर कोई कापीराईट नहीं रखना है. और आज तक नहीं रखा और न आगे कभी होगा. कुछ अप्रिय प्रसंग जरूर आये लेकिन व्यापक तौर पर तो समाज का फायदा ही हुआ और बदले में मुझे उनका अथाह प्यार और सहयोग मिला. आप देखिए दुनिया में तो अब एक नया फैशन ही चल पड़ा है कापी लेफ्ट का. खुले समाज की नयी परिभाषाएं बन रही हैं तो फिर हम अपनी ओर से उस खुले समाज के गुल्लक में एक सिक्का क्यों नहीं डालते? अच्छी चीज को रोककर आखिर हम क्या करेंगे? अगर हम सब बातों में खुलापन चाहते हैं तो अपने ही लिखे पर प्रतिबंध क्यों लगाएं? वैसे भी अब टेक्नालाजी इसकी इजाजत नहीं देती है.

सवाल- क्या अधिकार का दावा छोड़ना ही एकमात्र रास्ता है?
जवाब- जी बिल्कुल. यही प्राकृतिक व्यवस्था है. क्या अनाज अपने ऊपर कापीराईट रखता है कि एक दाना बोएंगे तो सिर्फ एक दाना ही वापस मिलेगा? पेड़ पौधे अपने ऊपर कापीराईट रखते हैं? पानी अपने ऊपर कापीराईट रखता है? तो फिर विचार पर कापीराईट क्यों होना चाहिए? प्रकृति हमकों सिखाती है कि चीजें फैलाने के लिए बनायी गयी हैं.

सवाल- कापीराईट और लाभ की मानसिकता ने क्या चौथे खंभे पत्रकारिता के सामने भी संकट पैदा किया है?
जवाब- पहले तो इसे चौथा खंभा क्यों कहते हो? हमने एक काल्पनिक महल खड़ा कर लिया जिसके चार खभे बना लिये हैं. मुझे तो चारो खभों के बारे में शक है. ऐसे खंभे पर टिकाते जाएं तो फिर बारहखंभा में क्या दुर्गुण है? सड़क पर एक हवेली थी उसमें बारह खंभे थे इसलिए उसका नाम बारह खंभा हो गया. ये लोकतंत्र के सभी खंभे बालू की भीत में लगे हवा के खंभे हैं. चौथा खंभा भी खंभा नहीं बल्कि खोमचा है. आप देखिए अब खबरें बिक रही हैं तो आप इसे खंभा कहेंगे या फिर खोमचा? इस खोमचे में काम करनेवाले पत्रकार भी इस पतन के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने खोमचे के मालिक. पत्रकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते.

Courtesy by Sanjay Tiwari on behalf of www.visfot.com

Tuesday, April 13, 2010




दंतेवाड़ा में नक्सलियों से मुलाकात के चक्कर में प्रख्यात लेखिका अरूंधती राय नप सकती हैं। नक्सलियों को महिमामंडित करने की छत्तीसगढ़ के एक सामाजिक कार्यकर्ता की शिकायत पर उनके खिलाफ  डीजीपी विश्व रंजन  ने जांच के निर्देश दिए हैं।




(विस्तृत खबर पढ़ें)












साभार- नई दुनिया

Monday, April 12, 2010

सानिया के नाम खुला खत

प्रिय सानिया,
           आयशा प्रकरण के पटाक्षेप के बाद अब जबकि यह तय हो चुका है कि तुम्हारा निकाह शोएब के साथ होकर रहेगा, मेरे मन में तुम्हारे लिए गहरी सहानुभूति उमड़ आई है। अपने जमाने की मषहूर अभिनेत्री रीना राॅय और मुंबई की आशा पाटिल के बाद तुम शायद तीसरी सेलेब्रिटी दुल्हन बनोेगी, जिसकी ससुराल पाकिस्तान में होगी। हालांकि तुम इन सबके असफल वैवाहिक जीवन की बात सोचकर टेंशन बिल्कुल मत लेना। दूसरी बीबी के रूप में शोएब तुम्हारी अहमियत बखूबी समझेगा। वहीं शादी के बाद भी भारत की ओर से खेलने की बात कहकर तुमने सही मायने में साबित कर दिया है कि खेल के साथ ही पूंजी की समझ तुममें कहीं ज्यादा है।
              शादी के बाद दुबई में रहने का तुम्हारा फैसला भी एक तरह से समसामयिक और हमें राहत देने वाला है। अरे जब तुम्हारे तंग कपड़ों पर भारत में इतना बवाल मच सकता है तो पाकिस्तान में दो-चार फतवे तो जारी हो ही जाने थे। और फिर कुछ बागड़बिल्लों की ओर से देष की विभिन्न अदालतों में तुम्हारे खिलाफ दायर तिरंगे के अपमान के मामलों में भी अब तुम कुछ राहत की सांस ले सकोगी। तुम्हारे दुबई में रहने से हम सब भारतीय उस लानत-मलानत से भी बच सकेंगे, जो तुम्हारे भारत की बेटी के रूप में पाकिस्तान जाने से हमें झेलनी पड़ती। अब हमारे पास कहने को होगा कि सानिया की ससुराल दुबई ही है शत्रु देश पाकिस्तान में नहीं। वैसे भी कारगिल समेत तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लड़ाइयों में हमारे वीर सपूतों की जान लेने वाला पाकिस्तान तुम्हें कभी रास आता भी नहीं।
               हालांकि हिंदूवादी संगठनों को जो अपने नारों में पाकिस्तान को भारत का बेटा बताते रहे हैं, अब बदले हालातों मंें खुद को जस्टिफाई करने के लिए नए सिरे से नारों को गढ़ना होगा। वैसे भी तुम्हारी शादी की खबर नहीं पचा पा रहे करोड़ों भारतीयों के साथ ही बाल ठाकरे और कब्वे सादिक जैसे नेताओं की भी तुम परवाह मत करना। यह जिंदगी तुम्हारी है और तुम्हें इस अपने ढंग से जीने का अधिकार है। वहीं तुम्हारे इस फेसले से पाकिस्तान के बंजर टेनिस कोर्ट में सनसनी की उम्मीद करने वाली फिरकापरस्त ताकतों को भी तुमने माकूल जवाब दिया है। हो सकता है कि तुम अगर पाक में रहने का फैसला करतीं तो 1965 और 71 के युद्ध में बुरी तरह से मात खा चुके लोग इस मौके को 2010 की अपनी जीत के रूप में मनाते।
        सानिया, यकीन मानो सोहराब के बाद किसी भी भारतीय वर को न चुनने के तुम्हारे इस कठोर फैसले ने हमारे देश के लाखों मुसलिम युवाओं को तोड़कर रख दिया है। उन्हें डर है कि तुम्हारी तर्ज पर हर मुसलिम लड़की अपने सपनों का शहजादा पाकिस्तान या दुबई में ही ढूंढने लगी तो उनकी दिन दूनी रात चैगुनी रफतार से बढ़ रही जमात का क्या होगा।
         सानिया, अब जबकि तुम्हारे निकाह में ज्यादा समय नहीं है, हमारी इल्तजा है कि हो सके तो शोएब समेत तमाम पाकिस्तानियों से मेहर के रूप में इस मुल्क के लिए अमन और चैन मांग लेना। अंधे इश्क  के चलते बने कुछ घावों का इससे बेहतर मरहम शायद ही कोई हो।

खेल की ही तरह अपने वैवाहिक जीवन में भी लंबी पारी खेलो। इस कामना के साथ...

तुम्हारा शुभाकांक्षी

एक भारतीय नागरिक



Tuesday, April 6, 2010

अरुंधती को गृहमंत्री बना दिया जाए तो कैसा रहेगा !

(Arudhati Roy with a gang of Naxalites in Dantewada, Chattisgarh) photo source- Outlook India

हाल ही में आउटलुक मैग्जीन में नक्सलियों के बारे में कवर स्टोरी पढ़कर अरुंधती राय की दिलेरी का कायल हुए बगैर ना रह सका। छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के जंगलों में जिन नक्सलियों तक बीएसएफ, आईटीबीपी और सीआरपीएफ जैसे अर्द्धसैनिक बल या पुलिस के स्पेशल आॅपरेशन ग्रुप्स नहीं पहुंच पाए उन्हें इस खांटी वामपंथी ने खोज निकाला। यही नहीं अपनी आवभगत भी कराई। 'वाकिंग विद कामरेड' नाम के इस लेख को पढ़कर दिल सोचने को मजबूर हो गया कि अगर अरुंधती को हमारे देश का गृहमंत्री बना दिया जाए तो कैसा रहेगा। हर तरह के रोल निभाने वाली अरुंधती देश के आंतरिक और बाहरी संकटों से बखूबी निबट सकती हैं।           
           न जाने क्यों अरूंधती को देख सुनकर किसी कार्टून फिल्म का मुख्य पात्र याद आ जाता है जो तरह-तरह की भूमिकाओं में दर्षकों का मनोरंजन करता है। कभी प्रगतिषील लेखिका, कभी सामाजिक विचारक, कभी एक्टिविस्ट तो कभी कामरेड बनी अरुंधती की लगभग हर ज्वलंत मुद्दे में अड़ने वाली टांगों का मैं निजी तौर पर कायल हूं। जबकि सस्ती लोकप्रियता के लिए सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने वाली उनकी नीति का भी मैं पूरी तरह से गलत नहीं मानता।
             बात अरूंधती के उसी लेख से शुरू करते हैं जिसमें वह जीदारी के साथ बताती हैं कि उन्हें दिल्ली स्थित उनके निवास में एक चिट मिली, जिसमें उन्हें बाकायदा कोडवर्ड और कुछ खास साजोसामान के साथ दंतेवाड़ा आने का न्यौता दिया गया। कई दिनों के मुष्किल सफर के बीच अरुंधती ने अपने कामरेड साथियों से कई चरणों में बातचीत की। इस दौरान जंगलों में महज एक पाॅलीथिन पर रात बिताकर उन्होंने यह जता दिया कि वह सुख-सुविधाओं की मोहताज नहीं हैं। ऐसे में गृहमंत्री के रूप में मुष्किल से मुष्किल स्थिति का सामना कर सकने की उनकी क्षमता का पता चलता है।
          वैसे अरुंधती को यूपीए सरकार में किसी अन्य मंत्रालय जैसे सामाजिक न्याय, स्वास्थ्य, ग्रामीण पुनर्वास या कारपोरेट मामलों का प्रभार भी दिया जा सकता है लेकिन अपने लेख में उन्होंने जिस तरह से मौजूदा गृहमंत्री पी. चिदंबरम को आॅपरेशन ग्रीन हंट के लिए पानी पी-पीकर कोसा है, उससे तो यही लगता है कि इन्हें गृहमंत्री की कुर्सी से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। कथित गरीब नक्सली भाई-बहनों के लिए उनकी भावनाएं पढ.कर बाॅलीवुड का कोई निदेशक एक मार्मिक फिल्म बना सकता है, जिसके हिट होने की भी पूरी गारंटी है। वहीं सलवा जुडूम पर सवालिया निषान के बाद सरकार की भी भलाई इसी में है कि उन्हें बंद कर दे, नहीं तो क्या पता 'गुरूजी' की यह शिष्या कल को अपनी मांगों के समर्थन में असत्याग्रह शुरू कर दे।

अरुंधती राय का पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें-
http://www.outlookindia.com/article.aspx?264738