Wednesday, April 21, 2010

शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं..


पानी और पर्यावरण पर काम के लिए जाने जाते हैं अनुपम मिश्र. अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' के साथ उन्होंने एक दूरगामी दृष्टि वाला प्रयोग किया. उन्होंने अपनी किताब पर किसी तरह का कापीराइट नहीं रखा. इस किताब की अब तक एक लाख से अधिक प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं! यहां प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-


सवाल- कापीराईट को लेकर आपका नजरिया यह क्यों है कि हमें अपने ही लिखे पर अपना दावा (कापीराईट) नहीं करना चाहिए?
जवाब- कापीराईट क्या है इसके बारे में मैं बहुत जानता नहीं हूं. लेकिन मेरे मन में जो सवाल आये और उन सवालों के जवाब में मैंने जो जवाब तलाशे उसमें मैंने पाया कि आपका लिखा सिर्फ आपका नहीं है. आप एक जीवन में समाज के किस हिस्से कब और कितना सीखते, ग्रहण करते हैं इसकी कोई लाईन खींचना कठिन काम है. पहला सवाल तो यही है कि मेरे दिमाग में जो है वह क्या केवल मेरा ही है? अगर आप यह मानते हैं कि आपका लिखा सिर्फ आपका है तो फिर आपको बहुत कुछ नकारना होगा. अपने आपको एक ऐसी ईकाई साबित करना होगा जिसका किसी से कोई व्यवहार नहीं है. न कुल परिवार से न समाज से. क्योंकि हम कुल, परिवार, समाज में बड़े होते हुए ही बहुत कुछ सीखते हैं और उसी से हमारी समझ बनती है. अगर आप कापीराईट का इतिहास देखें तो पायेंगे कि हमारे समाज में कभी कापीराईट की कोई प्रवृत्ति नहीं थी. अपने यहां कठिनत श्रम से प्राप्त की गयी सिद्धि को भी सिर्फ सेवा के निमित्त उपयोग की जाती है. मीरा, तुलसी, सूरदास नानक ने जो कुछ बोला, लिखा वह सब हाथ से कापियां लिखी गयीं. तमिलनाडु में ऐसे हजारों ग्रंथ हैं जो हाथ से लिखे गये और हाथ से लिखे ग्रंथ भी दो-ढाई हजार साल अनवत शुद्धत्तम स्वरूप में जिंदा रहे हैं. इसलिए यह कहना कि कापीराईट से मूल सामग्री से छेड़छाड़ होनी बच जाती है ऐसा नहीं है. िजनका जिक्र मैं कर रहा हूं वे सब बिना कापीराईट के भी शुद्धतम स्वरूप में लंबे समय तक बची रही हैं और आज भी विद्यमान हैं. उनको तो किसी कापीराईट एक्ट की जरूरत महसूस नहीं हुई फिर आपको क्यों होती है?
        कॉपीराईट का नियम अंग्रेजों के साथ भारत में आया लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि किसी के मन में कभी यह सवाल और संदेह नहीं उठा कि आखिर हम कापीराईट का इस्तेमाल क्यों करें? महात्मा गांधी तक ने अपनी कापीराईट एक ट्रस्ट नवजीवन ट्रस्ट को पचास साल के लिए दे दिया था. अब पचास साल बाद गांधी के लिखे पर फिर कापीराईट हट गया है. तो फिर महज पचास साल के लिए इसका पालन करने से गांधी विचार भी नहीं बच सका. यह सब देखकर आश्चर्य होता ही है.

सवाल- लेकिन आज के इस व्यावसायिक युग में किसी का लिखा उसका व्यवसाय भी हो सकता है जिससे उसके जिंदगी की गाड़ी चलती है. वो भला अपना लिखा समाज को अर्पित कर दे तो अपना गुजारा कैसे करेगा?
जवाब- जिस दिन हम केवल कमाने के लिए लिखने लगेंगे उस दिन हमारे लिखने की गुणवत्ता भी गिर जाएगी. लिखना केवल पैसे के लिए नहीं होना चाहिए. कुछ लोग पैसे के लिए काम करते हैं तो भी उनको ध्यान रखना चाहिए कि वे जो लिखना चाहते हैं वह लिखें न कि पैसे देकर उनसे कोई कुछ लिखवाता है तो केवल वही न करते रहें. समाजऋण भी कुछ होता है जिसको चुकाने की नैतिक जिम्मेदारी महसूस होनी चाहिए. अगर आप सिर्फ पैसे के लिए लिखेंगे तो कभी वह नहीं लिख पायेंगे जो आप लिखना चाहते थे. आप बाजार में अपना लिखा एक तराजू पर लेकर खड़े हो जाएं और अशर्फियों में बोली लगाना शुरू करेंगे तो मुश्किल होगी. फिर जो अशर्फी देगा वह आपके लिखे को ले जाएगा. असल में कापीराईट का व्यवसाय यह अशर्फी देनेवाला समाज पैदा करता है. क्योंकि उसको आपके लिखे से मुनाफा कमाना है. इसलिए लिखनेवालों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर वे किसके लिए लिख रहे हैं? एक बात जान लीजिए, अशर्फी लेकर लिखनेवाले लोग अस्तित्व में लंबे समय तक उपलब्ध नहीं रह पाते हैं. एक समय के प्रवाह में आते हैं और अशर्फी में तुलकर समाप्त हो जाते हैं. मुंबई फिल्म उद्योग में कम पैसा है? लेकिन जरा देखिए, कल के स्टार आज किस गर्त में पड़े हैं? यही आज के स्टारों के साथ कल होगा. यही बात लेखकों पर भी लागू होती है. अच्छे लिखनेवालों की कीमत बाजार में नहीं समाज में निर्धारित होनी चाहिए.
         जहां तक आजीविका चलाने की बात है तो इसमें व्यावहारिक दिक्कत कम और मानसिक संकट ज्यादा है. अगर हम बुद्धि के श्रम के साथ थोड़ा शरीर का श्रम भी जोड़ दें तो दिक्कत नहीं होगी. आखिर क्यों हम केवल बुद्धि के श्रम की कमाई ही खाना चाहते हैं? यह तो विकार है. सड़क पर कूदने से अच्छा है कि थोड़ी देर खेत में कूद लो. थोड़ा श्रम करके पूंजी अर्जित कर लो. केवल अपने लिखे का मत खाओ. तब शायद ज्यादा अच्छा लिख सकोगे. ऐसा जीवन मत जियो जो केवल लिखने पर टिका हो.

सवाल- टेक्नॉलाजी के इस युग में कापीराईट कितना प्रासंगिक रह गया है?
जवाब- टेक्नालाजी और कापीराईट दो विरोधाभासी तत्व हैं. जब टेपरिकार्डर आया तो वह सूटकेस के आकार में था. आप किसी जगह भाषण देते थे तो वह रिकार्ड होना शुरू हो गया. इसके बाद टेपरिकार्डर का आकार छोटा होता गया और आज हम मोबाइल में ही सब कुछ रिकार्ड कर सकते हैं. अब सोचिए किसी के भाषण पर कापीराईट का अब क्या मतलब? मेरे बोले को कौन कैसे रिकार्ड करके कहां पहुंचा देगा, मैं भला कैसे जान पाऊंगा? जैसे टेपरिकार्डर ने एक तरह के कापीराईट को खत्म किया उसी तरह फोटोकापी मशीन ने लिखे के कापीराईट को अप्रासंगिक बना दिया. अब कम्प्यूटर ने तो सारी हदें तोड़ दी हैं. पहले तो हाथ से मजदूरी करके कापी करना होता था लेकिन टेक्नालाजी ने शेयरिंग का सब काम आसान कर दिया है. फिर क्यों झंझट मोल लेते हो? संभवत: टेक्नालाजी हमें बता रही है कि देखो राजा! शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं. इसलिए इसका आग्रह छोड़ दो. जो संभव नहीं, उसका आग्रह रखने की क्या जरूरत है?

सवाल- आपने कहा कि केवल अपने िलखे का मत खाओ. क्या इसको आप थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?
जवाब- ऐसा कहने का मेरा आशय है कि इतना अच्छा लिखो कि तुम्हारे लिखे का कोई और भी खाये. मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आपके लिखे का सिर्फ प्रकाशक खाये. कुछ ऐसा लिखिए कि समाज के लोगों को कुछ फायदा हो. उनका जीवन सुधरे. उनका पानी रुके. उनका अकाल दूर हो. बाढ़ में चार गांव तैर जाएं. कुछ ऐसा लिख दो कि संकट में लोगों के लिए वह संबल की तरह काम आये. हो सकता है कि इसके लिए पैसा न मिले लेकिन बदले में और भी बहुत कुछ मिलेगा जो पैसे से ज्यादा कीमती होगा. लिखनेवाली जमात को यह समझना होगा.

सवाल- आपने अपने लिखे पर कभी कापीराईट नहीं रखा. क्या आपको जीवन में आर्थिक संकट नहीं उठाना पड़ा?
जवाब- प्राप्ति सिर्फ पैसे की ही नहीं होती है. मुझे पैसा नहीं मिला लेकिन बदले में समाज का इतना प्यार मिला है जिसके सामने पैसे का कोई मोल नहीं है. मैं एक सामाजिक संस्था (गांशी शांति प्रतिष्ठान) में काम करता हूं और कल्पना से भी बहुत कम मानदेय प्राप्त करता हूं. लेकिन मुझे जीवन में न कोई शिकायत है और न ही कोई संकट. मैंने पैंतीस साल पहले ही तय कर लिया था कि मुझे अपने लिखे पर कोई कापीराईट नहीं रखना है. और आज तक नहीं रखा और न आगे कभी होगा. कुछ अप्रिय प्रसंग जरूर आये लेकिन व्यापक तौर पर तो समाज का फायदा ही हुआ और बदले में मुझे उनका अथाह प्यार और सहयोग मिला. आप देखिए दुनिया में तो अब एक नया फैशन ही चल पड़ा है कापी लेफ्ट का. खुले समाज की नयी परिभाषाएं बन रही हैं तो फिर हम अपनी ओर से उस खुले समाज के गुल्लक में एक सिक्का क्यों नहीं डालते? अच्छी चीज को रोककर आखिर हम क्या करेंगे? अगर हम सब बातों में खुलापन चाहते हैं तो अपने ही लिखे पर प्रतिबंध क्यों लगाएं? वैसे भी अब टेक्नालाजी इसकी इजाजत नहीं देती है.

सवाल- क्या अधिकार का दावा छोड़ना ही एकमात्र रास्ता है?
जवाब- जी बिल्कुल. यही प्राकृतिक व्यवस्था है. क्या अनाज अपने ऊपर कापीराईट रखता है कि एक दाना बोएंगे तो सिर्फ एक दाना ही वापस मिलेगा? पेड़ पौधे अपने ऊपर कापीराईट रखते हैं? पानी अपने ऊपर कापीराईट रखता है? तो फिर विचार पर कापीराईट क्यों होना चाहिए? प्रकृति हमकों सिखाती है कि चीजें फैलाने के लिए बनायी गयी हैं.

सवाल- कापीराईट और लाभ की मानसिकता ने क्या चौथे खंभे पत्रकारिता के सामने भी संकट पैदा किया है?
जवाब- पहले तो इसे चौथा खंभा क्यों कहते हो? हमने एक काल्पनिक महल खड़ा कर लिया जिसके चार खभे बना लिये हैं. मुझे तो चारो खभों के बारे में शक है. ऐसे खंभे पर टिकाते जाएं तो फिर बारहखंभा में क्या दुर्गुण है? सड़क पर एक हवेली थी उसमें बारह खंभे थे इसलिए उसका नाम बारह खंभा हो गया. ये लोकतंत्र के सभी खंभे बालू की भीत में लगे हवा के खंभे हैं. चौथा खंभा भी खंभा नहीं बल्कि खोमचा है. आप देखिए अब खबरें बिक रही हैं तो आप इसे खंभा कहेंगे या फिर खोमचा? इस खोमचे में काम करनेवाले पत्रकार भी इस पतन के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने खोमचे के मालिक. पत्रकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते.

Courtesy by Sanjay Tiwari on behalf of www.visfot.com

7 comments:

  1. हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

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  2. आप ने सही कहा, हमारी सोच हमारे सुने पढ़े विचारों से ही प्रेरित होती है.

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  3. aapko padh kar bahut hi achha laga .aur kai jankari bhi prapt hui.sawalo ke jawab bahut hi sahi diye hain aaapne ,aabhar.
    हमने एक काल्पनिक महल खड़ा कर लिया जिसके चार खभे बना लिये हैं. मुझे तो चारो खभों के बारे में शक है. ऐसे खंभे पर टिकाते जाएं तो फिर बारहखंभा में क्या दुर्गुण है? सड़क पर एक हवेली थी उसमें बारह खंभे थे इसलिए उसका नाम बारह खंभा हो गया. ये लोकतंत्र के सभी खंभे बालू की भीत में लगे हवा के खंभे हैं. चौथा खंभा भी खंभा नहीं बल्कि खोमचा है. आप देखिए अब खबरें बिक रही हैं तो आप इसे खंभा कहेंगे या फिर खोमचा? इस खोमचे में काम करनेवाले पत्रकार भी इस पतन के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने खोमचे के मालिक. पत्रकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते.
    poonam

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  4. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते उसके दिमाग में जो कुछ है या जो भी वह लिखता है,उस पर सामाजिक प्रभाव मौजूद रहता है इसलिये विचार या लेख पर किसी लेखक अथवा विचारक के एकमेव अधिकार की मान्यता तो शायद ठीक न हो लेकिन निष्णात लेखकों से अपनी जीविका के लिये मेहनत मजदूरी करने वाली बात ज्यादा सख्त प्रतीत होती है। लेखकों के जीवन निर्वाह की कोई वैकल्पिक व्यवस्था तलाशी जानी चाहिये।

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  5. आप ने सही कहा,मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

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  6. Ajay bhai,

    You deserve a thanks for bringing us such fantastic articles and vital information. I keep reading your blogs but never get time to give my comments. I am sure you gonna write something about this time in upcoming articles :-) I hope you are as usual in good mood and good health !!!

    Best regards,
    Ruchir

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  7. आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं..........हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं.....बधाई स्वीकार करें.....हमारे ब्लॉग पर आकर अपने विचार प्रस्तुत करें.....|

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