छत्तीसगढ़ की वैष्णोदवी कही जाने वालीं मां बम्लेश्वरी देवी के दर्शन के लिए नवरात्र में डोगरगढ़ जाना हुआ। तीन ब्रेक में करीब नौ सौ सीढ़ियां पहाड़ी पर चढ़ने के बाद मुख्य मंदिर पहुंच सका। राजा विक्रमादित्य के समय बना यह मंदिर वाकई खूबसूरत है। इसकी छत पर कांच की नक्काशी और सजावट तो बस देखते ही बनती है। ज्यादातर चीजें बिल्कुल उत्तर भारत के मंदिरों जैसी थीं सिवाय एक बात के, जिसने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। दरअसल वहां प्रसाद में नारियल बिना किसी चढ़ावे की अनिवार्य शर्त के मिल रहा था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यहां प्रसाद की री-साइक्लिंग की संभावनाएं बहुत कम थीं या न के बराबर थीं। चैंकिए मत आगरा, मथुरा समेत कई मंदिरों में प्रसाद की री-साइक्लिंग बिल्कुल आम बात है। दरअसल यहां चढ़ने वाले नारियल समेत अन्य प्रसाद सामिग्री को मंदिर ट्रस्ट के स्तर से दोबारा से उन्हीं दुकानदारों को बेच दिया जाता है, जिनसे वह खरीदी गई होती है।
बात आगरा से करीब 12 दूर ग्वालियर रोड पर स्थित इटौरा की केलादेवी से शुरू करते हैं। इस ऐतिहासिक मंदिर में हर साल नवरात्र पर भव्य और दिव्य मेला लगता है। लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। मंदिर के छह सौ मीटर दूर से ही प्रसाद बिक्री की दुकानें शुरू हो जाती हैं, जहां नारियल और अन्य सामग्री मां के दरबार में चढ़ाने को मिलती हैं। चूंकि अपनी ननिहाल इसी गांव में है, सो बचपन से देखता आ रहा हूं कि श्रद्धालु जो नारियल देवी को अर्पित करते हैं। वह प्रसाद में मिलने के बजाए भंडार गृह में पहुंच जाते हैं और फिर यहां से बोरों में भरकर वापस दुकानदारों पर। कमोबेश ऐसे ही हालात मथुरा-दिल्ली मार्ग पर छाता के समीप हमारी कुलदेवी नरीसेमरी के प्राचीन मंदिर के रहते हैं। पिछले वर्ष यहां के पुजारी से जब मैंने प्रसाद में नारियल मांगा तो उसने दान पेटी का रास्ता दिखा दिया। आगरा में रूनकता के शनिदेव मंदिर में चढ़ाए जाने वाला सरसों का तेल और काले तिल भी री-साइक्लिंग के इस खेल से अछूते नहीं हैं।
इस्काॅन समेत कुछ अन्य मंदिरों को छोड़ दें तो मथुरा-वृंदावन के ज्यादातर मंदिरों के ठेकेदार इससे भी एक कदम आगे बढ़ चुके हैं। यहां श्रद्धालु के प्रभाव को देखकर प्रसाद दिया जाता है। ज्यादा दान देने ंपर बांकेबिहारी की माला भी प्रसाद के रूप में गले में डाल दी जाती है। वहीं अगर किसी सुदामा टाइप भक्त ने प्रसाद मांग लिया तो पंडा लोग खींसे निपोरने लगते हैं। उधर, गुवाहाटी के कामाख्या शक्तिपीठ के पुजारी इन मंदिरों से एक कदम नहीं बल्कि एक सौ किमी आगे चले गए हैं। वर्ष 1999 की अपनी यात्रा के दौरान मैंने यहां देखा कि यहां बाकायदा बोली लगाकर देवी के दर्शन कराए जाते हैं। जो जितना अधिक धन देगा वह उतने ही सुगम तरीके से और नजदीक से दर्शन करेगा। कई बार तो ज्यादा धन देने पर प्रसाद के रूप में देवी की कथित रज का लाल कपड़ा भी मोटे पेट वाले श्रद्धालुओं को थमा दिया जाता है। जबकि गरीब आदमी घंटों लाइन में लगने के लिए छोड़ दिया जाता है, जैसे उसके समय की तो कोई कीमत ही न हो। यूं तो इन सभी मंदिरों के कर्ता-धर्ता अलग-अलग हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का इनका पोंगापंथी जरिया इन्हें एक ही जमात में ला खड़ा करता है। वहीं दूसरी ओर डोगरगढ़ का यह देवी मंदिर अपनी रवायत के चलते श्रद्धालुओं को एक सुखद अहसास कराता है।
इस सबके बीच मंदिरों में नारियल चढ़ाने की बात न हो तो शायद यह बात अधूरी ही रह जाए। आमतौर पर श्रद्धालु नारियल समेत पूरी थाली को पुजारी को अर्पित कर देते हैं। वहीं कुछ लोग नारियल को मंदिर में ऐसे फेंकते हैं, जैसे भगवान पर ईंट फेंक रहे हों। दरअसल उनकी मंशा अपने नारियल के भगवान के अधिक से अधिक नजदीक पहुंचाने की रहती हैं। ऐसे में नारियलों के इस हमले से आजिज होकर कई मंदिरों में नारियल न फेंकने की अपील भी चस्पा कर दी गई है। इस सबके बीच कुछ समझदार भक्त मंदिर की चैखट पर नारियल फोड़ने में यकीन करते हैं और शायद यह वहीं लोग होंगे जो भगवान के घरों के इस बाजारीकरण के खिलाफ खड़े हैं और ऐसे में अगली बार जब भी मंदिर में नारियल चढ़ाएं तो उसे फोड़कर ही वापस आएं। शायद यही सही तरीका भी है प्रसाद की इस री-साइक्लिंग को रोकने का।
pujari uske baad kuch aur rasta nikal lenge mere dost.
ReplyDeletesushil raghav
bhai, mandiron ki ye report padhne ke baad lagta hai ki ese journalism ke chasme se dekha gaya hai. har us pehlu ko ubhara gaya hai jo nagative hai. positive pakch ko samne nahi laya gaya hai. achha hota agar mandiron ki astha or viswash par bhi roshni daali jaati...
ReplyDelete-kapil meerut
good one bhaiya, nnice to read your blog......... wishing all the bestn for future
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